SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 62
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ विनीत का उत्तराधिकारी एवं पुत्र दुर्विनीत संस्कृत और कन्नड भाषा का बड़ा विद्वान था । उसे एक ताम्रपत्र में 'शब्दावतारकार, देवभारतीनिबद्ध बृहकथा' आदि कहा गया है ! राइस महोदय एवं डा० सालेतोरे श्रादि विद्वान् इस पद की व्याख्या कर यह सूचित करते हैं दुर्विनीत जैन वैय्याकरण पूज्यपाद का शिष्य था और उसने पूज्यपाद द्वारा लिखे शब्दावतार को कन्नड भाषा में "परिवर्तित किया था । उसने भारवि के किरातार्जुनीय काव्य के १५ सर्गों पर संस्कृत टीका भो लिखी थी ( १२१-१२२ ) । इसके समय का उल्लेख किया जा चुका है । हां, इसके समकालीन कोई जैन लेख हमारे संग्रह में नहीं हैं । इसके बाद इस वंश के राजाओं का वर्णन ई० सन् ७५० के लेख नं० ११६ तथा बाद के लेखों ( १२०-१२२ ) में मिलता है। इससे ज्ञात होता है कि गङ्ग वंश एक स्वतन्त्र राज्य था, उसने किसी की पराधीनता स्वीकार न की थी। इन लेखों से दुर्विनीत के बाद के नरेशों--मुष्कर, श्रीविक्रम, भूविक्रम, शिवमार प्रथम ( नवकाम) श्रीपुरुष, शिवमार द्वितीय एवं मारसिंह प्रथम तक वर्णन मिलता है । लेख नं० १२१ र १२२ में इन राजाओं को राजनातिक सफलताओं और सामरिक विजयों का उल्लेख है । शिवमार द्वितीय के पुत्र मारसिंह प्रथम के सम्बन्ध उसके समकालीन लेख नं० १२२ से ज्ञात होता है कि ई० सन् ७६७ में वह युवराज ही था । उसके राज्यकाल का ऐसा कोई लेख नहीं मिला जिससे कहा जाय कि वह राजा हो सका हो । I इसके बाद ईस्वी सन् ७६७ से ८८६ तक इस वंश का कोई लेख इस संग्रह में नहीं आ सका । मरणे से प्राप्त सन् ८०२ ई० के एक लेख ( १२३ ) से ज्ञात होता है कि राष्ट्रकूट गोविन्द तृतीय के समय में राष्ट्रकूट वंश दूसरे वंश की प्रतियोगिता में १. मेडीवल जैनिज्म, पृष्ठ १६-२३ ।
SR No.010112
Book TitleJain Shila Lekh Sangraha 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchandra Chaudhary
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1957
Total Pages579
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy