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________________ Stv जैन-शिल अनुगच्छन्ति ये पदे पदे ऋतु-फलं लभते नात्र संशयः ॥ 'तुकं कोकान्वितम् । [बिस समय बोम्मल देवीके पुत्र वीर-मैररस-वोडेयर कारकलकी गद्दीपर और उनकी छोटी बहिन काल-देवी मनुवि-खीमेकी रक्षा कर रही थी;उसने अपने कुल देवता कल्ल बस्तिके पारिश्व (पार्श्व ) तीर्थङ्करको दैनिक पूजाके लिये दान दिया । और जब उसकी पुत्री रामा देवी मर गई तब उसने अग्रलिखित पुण्य-दान किया : प्रतिदिन चावलकी २ अञ्बलि देना, पहिले मिले हुए ४० खमें भट्टके १५ ख और मिलाकर कुल ५५ ख; २ हमेशा जलनेके लिये दिये, और वार्षिक २४ ग धातुमें; साथियों के सामने ( उक्त ) भूमिका दान दिया । पाषाणका शासन उसीने उत्कीर्ण करवाया । ] [ Eo, VII, Koppa tl. No .47. ] ६६५-६६६ शत्रुंजय - प्राकृत | [ संवत् १५८७ और शक सं० १४५३ = १५३० ई० ] ये दोनों लेख श्वेताम्बर सम्प्रदाबके हैं । [G. Buhler, EI. II, No. VI, No. I ( P. 42–47 ), t.] ६६७ हुम्मच। [ बिना काल-निर्देशका, पर लगभग १५३० ई० का ( लू० राइस) । ] [ पद्मावती मन्दिरके प्राङ्गणमें एक पाषाण पर ] विद्यानन्व-स्वामिय । हृद्यौपन्यास-त्राणि घरेयोऴ् गेन्दुम :
SR No.010112
Book TitleJain Shila Lekh Sangraha 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchandra Chaudhary
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1957
Total Pages579
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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