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________________ प्रस्तुत संग्रह में देशियगण से संबन्धित ६५-७० लेख हैं पर कुछ ऐसे लेख हैं जिनसे ७-८ श्राचायों का एक गुरुवंश बन सकता है और कुछ से गण की विभिन्न पट्टावलियां । लेखों के पर्यालोडन से विदित होता है कि कर्नाटक प्रान्त के कई स्थानों में इस गण के केन्द्र थे। उन स्थानों में इनसोगे ( चिक हनसोगे ) प्रमुख था । यहाँ के श्राचार्यों से ही पीछे इस गया की इनसोगे बलि या गच्छ निकले हैं। गच्छ का साधारण अर्थ होता है शाखा और बलि ( कन्नड शब्द वलय या क्लग) का अर्थ होता है परिवार = श्राभ्यात्मिक परिवार या समुदाय । चिक इनसोगे से प्राप्त लेख नं० १७५, १६५, १६६ और २२३ से विक्ति होता है कि यहाँ इस गया की अनेक बसदियाँ (मन्दिर) थीं, जिन्हें चाल्व नरेशों द्वारा संरक्षण प्राप्त था । इनसोगे ( पनसोगे ) बलि या गच्छ के श्राचार्यों की लेख नं० २२३, २३२, २३६, २४१, २५३, २६६, २८४ एवं २८५ कीसहायता से प्राप्त एक परम्परा अगले पृष्ठ पर दी गई है। इसका बहुत कुछ समर्थन धवला के अन्त में दी गई श्राचार्य शुभचन्द्र सिद्धान्तदेव की ग्रन्थप्रशस्ति से भी होता है ' । लेखों से प्राप्त इस गुरुपरम्परा में और प्रशस्ति में दी गई परम्परा में कुछ अन्तर है। प्रशस्ति में गुरुवंश कुन्दकुन्द, गृद्धपिच्छ और बलाकपिच्छ से चला है और इस परम्परा के पूर्णचन्द्र को देशिय गण के प्रतिष्ठापक देवेन्द्र सिद्धान्त से जोड़ने का प्रयत्न हुआ है। उनके बीच में वसुनन्दि और रविचन्द्र सिद्धान्तदेव नामक दो श्राचार्यों का नाम दिया गया है। देवेन्द्र सिद्धान्त के पहले गुणनन्दि पण्डित का नाम भी रखा गया है। मालुम होता है कि प्रशस्ति के श्राधार १२वीं शताब्दी के द्वितीय, तृतीय दशकों के लेख ( २५५, २८४ आदि ) रहे होंगे । प्रति के तथा श्रन्य लेखों के द्वितीय शुभचन्द्र सिद्धान्त देव प्रसिद्ध सेनापति गंगराज के गुरु थे । १. घटखण्डागम, पुस्तक पृष्ठ ७-१० ।
SR No.010112
Book TitleJain Shila Lekh Sangraha 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchandra Chaudhary
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1957
Total Pages579
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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