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________________ .कनकसेन वादिराज ( हेमसेन) दयापाल पुष्पसन - वादिराज श्रीविजय (श्रोडयदेव) ( वर्धमान जगदेकमल्ल • वादिराज ले० नं० ३४७) । कमलमद्र (वादीम सिंह) पद्मनाभ मल्लिषेण मलधारी (११२८ ई.) शान्तिनाथ (ले० नं० २६०) (ले० नं० २६.०, ३१६) श्रीपाल चन्द्रप्रभ (ले० नं० ३५१ ) वादिराज (ले० नं. ५०३) वासुपूज्य (सन् ११६०-११७३ ई०) पुष्पसेन (ले० नं० ५०३ सन् १२५६ ई.) वृषभनाथ मल्लिषेण पण्डित (ले० नं० ३४७) (ले० नं० ३७३) (सन् ११५८ ई० ) ' मूलसंघ के गण, गच्छ एवं अन्वय हम पहले लिख चुके हैं कि यापनीय और द्रविड संघ के वर्णन के बाद मूलसंघ के गण गच्छादि का लेखों से प्राप्त होने वाले वाला परिचय देंगे। इसके सम्बन्ध में ११ वीं शताब्दी के प्राचार्य इन्द्रनन्दि के श्रु वावतार में और उसके
SR No.010112
Book TitleJain Shila Lekh Sangraha 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchandra Chaudhary
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1957
Total Pages579
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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