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________________ चतुर्मुख, तार्किकचक्रवर्ती एवं वादीमसिंह ( २१४)। लेख नं० २४८ में इन्हें वादिषरट, तार्किक चक्रवर्ती, एवं वादीभपञ्चानन कहा गया है। ये विक्रम शान्तर द्वारा पूजित थे। उसने पञ्चवसदि जिनालय के लिए इन्हें प्रामादि भेंट में दिये थे ( २२६ ) । पोछे विक्रम शान्तर के पुत्र त्रिभुवनमल्ल शान्तर ने अपनी दादी की स्मृति में इन्हीं गुरु का स्मरण कर एक मन्दिर का शिलान्यास किया था ( २४८)। इन मुनि के अन्तिम समय का स्मारक लेख नं० १३२ है जिसका समय लगभग १०६० ई० दिया गया है । लेख नं० २१४ में इनके सधर्मा मुनि कुमारसेन का नाम दिया गया है जो कि वैद्यगजकेशरी थे। लेख नं० २१३ में इनके समकालीन शान्तिदेव और दयापाल नामक दो मुनियों का उल्लेख है । शान्तिदेव के सम्बन्ध में मलिषेण प्रशस्ति में लिखा है कि इनके पवित्र पादकमलों की पूजा होय्सल विनयादित्य द्वितीय ( सन् १०४७ से, ११०० ई० ) करता था । लेख नं० २०० से भी यह बात समर्थित होती है । इस लेख के अनुसार सन् १०६२ में इनकी मृत्यु के उपलक्ष्य में एक स्मारक खड़ा किया गया था। दयापाल के सम्बन्ध में मलिषेण प्रशस्ति में केवल प्रशंसा पद दिये गये है। हुम्मच के लेखों से प्राप्त इतिवृत्त के बाद इस संग्रह के अनेकों लेखों से जो संघ की प्राचार्यपरम्परा ज्ञात होती है वह इस प्रकार है १-इस सग्रह के अन्य लेख है-२६४, २६५, २७४, २८७, २८८, २६० ३०५, ३१६, ३२६, ३२७, ३४७, ३५१, ३७३, ३७५, ३७६, ३८०, ४१०, ४२५ और ४६६. .
SR No.010112
Book TitleJain Shila Lekh Sangraha 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchandra Chaudhary
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1957
Total Pages579
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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