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________________ ४. है जिससे जात होता है कि इनका प्रभाव होयसल राजाओं पर भी था । लेख नं० २०२ ( सन् १०६४ ई०) इनके समाधिमरण का स्मारक है और उन्हें विलगण, नन्दिसंघ, अरुमालान्वय का नाथ तथा अनेक शास्त्रों का वेत्ता लिखा है। लेख नं० १७७ और लेख नं० २०२ में अंकित वर्षों से ज्ञात होता है कि वे ३४ वर्षों ( १०३० ई०-१०६४ ई० ) तक बराबर जिनशासन की प्रभावना करते रहे । हुम्मच के लेख नं० २१३ में इनका नाम वादिराज के बाद की पीढ़ी के प्राचार्यो में दिया गया है और मल्लिषेण प्रशस्ति के पद्य ५३ में इनकी प्रशंसा की गयी है। श्रीविजय पण्डित के सम्बन्ध में लेख नं० २१३ से विदित होता है कि वे अनेक प्रतिष्ठित प्राचार्यों के गुरु थे। उनका दूसरा नाम वोडेयदेव या अोडेयदेव था जो कि तियंगुडि के निडुम्बरे तीर्थ, अरुङ्गलान्वय, नन्दिगण के अधीश्वर थे। इन्हें तामिल प्रान्त ( तामेल्लरु ) से सम्बन्धित बताया गया है (२१४ ) पर इनका अधिक समय हुम्मच में बीता था ऐसा उक्त स्थान से प्राप्त लेखों से मालुम होता है । इनके गृहस्थ शिष्यों में ननि शान्तर एवं प्रसिद्ध जैन महिला चट्टलदेवी प्रमुख थे। श्रीविजय के शिष्यों में श्रेयांसदेव को लेख नं० २१३ में उर्वोतिलक जिनालय का प्रतिष्ठापक लिखा है। दूसरे शिष्य कमलभद्र लेख नं० २१४ और २१६ के अनुसार भुजबल शान्तर आदि तथा चट्टल देवी द्वारा सम्मानित थे। तीसरे शिष्य अजितसेन' बड़े ही विद्वान् थे। उनकी कई उपाधियाँ थीं-जैसे शन्द १. कुछ विद्वान् इन अजितसेन वादीभसिंह का गवचिन्तामणि और क्षत्रचूडामणि के कर्ता बादीभसिंह अजितसेन से साम्य स्थापित करते है, पर यह ठीक नहीं क्योंकि अन्यकर्ता अजितसेन के गुरु का नाम पुष्पसेन था। इस लेख के अजितसेन के गुरु सधर्मा एक पुष्पसेन अवश्य थे पर वे अन्यकर्ता अजितसेन के गुरु थे यह लेखो से नहीं ज्ञात होता ।
SR No.010112
Book TitleJain Shila Lekh Sangraha 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchandra Chaudhary
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1957
Total Pages579
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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