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________________ अद्रिके लेख ४३५ स्व-स्थिरवाद बनवसेगवाभयमुं पदिनेण्टु-कम्पणम् । विस्तरदिन्व जिडडुळिगेगोप्पुव दर्पणवुद्धरा-पुरम् । उद्धरेयोळ बनिसिद्दम् । ... हात्तं बयिचपाल्म सिरियण्णम् । सद्ध मिंगळ सुर-द्रुम। ... ... ... सिष्टरं पालिसुतं ।। आतन सति चोडाम्बिके। भूतळदोळ् पुरुष-भक्ति बन्धुर्गाळत्सा- । मात्रदि पुर-जनवहुदेने। गोत्रं पेच्चुत्ते नडदळत्याश्चर्यम् ।। व ॥ अन्ता-सिरियण्णं ....... स्व-पत्नी-सहित-बन्धु-बान्धव ... परिजन-पुर-जनम पालिसुत्त सुख-संकथा-विनोददिन्दमिरुत यिरलु ।। वोन्दानोन्दु-दिनं अरुहत्-परमेश्वरं मुनिभद्र सिरियण्ण .." चिन्तानेयं माळप ... मुनिभद्र-देवगग्नेयोळ् । अनुवर्तिसिह गुड्डनातनेम् ... । ... ... ... ... ... ... ... तङ्ग । अनुमत-पदवीवेनेन्दु नेनेववसरदोळ् ।। अनु '' त्तदिं कुसुम-वृष्टिगळं सुरियल्के बेगदिम् । घन-व-भेरि-दुन्दुभि महा-मुरजं बहु-बाद्य-घोषदिम् । तन तनगाडि पाडुतिरे ... ... ... ... ...। जिन-पद-पद्ममं बिडद ... सिरियण्णनेम् कृतार्थनो ।। ( बाकीका पढ़ा जाने योग्य नहीं है)। [इस लेखमें बयिचप्पके पुत्र सिरियण्णने किस तरह जिन-चरणोंका आश्रय लिया, इसका वर्णन है। नं० ५७६ लेखकी ही तरह यहाँ भी उद्धरेका वर्णन है । इसमें बयिचपके पुत्र बिन-भक्त सिरियण्णने जन्म लिया था। उसकी स्त्रीका
SR No.010112
Book TitleJain Shila Lekh Sangraha 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchandra Chaudhary
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1957
Total Pages579
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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