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________________ ४३४ जैन-शिलालेख संग्रह शफा वर्ष १३२१ नेय बहुधान्य-संवत्सरद आषाढ़ शुद्ध १२ बुधवारदुदय-कालदोळु श्रीमन्नाळव-महाप्रभु बिड्डुलिगेय-नाडिले मुख्यवाद आवलिय बन्द गौण्डन सति चन्द-गौण्डि सन्यसन-समाधि-विधियि मुडिहि स्वर्ग-प्राप्तेयादळु ॥ क ॥ वर-पार्श्व-जिनर चरणम् । उरुतर-श्री-विजयकीर्ति-चरणाम्बुजमम् । शरणेन्दु मनदि नेनेवुत । वर-वडदळ यिन्द्र-स्वामं सुखदिन्दम् ॥ नडव महा-लदिम-चौण्डक । यडवरिय ... ... ... आवलियोळम् । कडयिन्जद कीर्तिय ... ... । पडेद सति सतियरोळगे ... ... माद सतिय ॥ भद्रमस्तु ॥ मङ्गळ महा श्री श्री श्री [ यह लेख ऊपर के लेख नं. ५६४ से मिलता है, लेकिन चन्द-गौण्ड की पत्नी चन्द-गौण्डि, बिनके पुरोहित विजयकीर्ति थे, का उल्लेख है। [ EC, VIII, Sorab tl., No. 105 ] ५६४ अद्रि-संस्कृत तथा सा-मग्न [विना का निर्देशन, पर जगभग १५०० ई.] [अनिमें ही, एक दूसरे पापाणपर] श्रीमत्परमगम्मीरस्थादादामोघलाञ्छनम् । बीयात् त्रैलोक्यनाथस्य शासनं जिन-शासनम् ॥ स्वस्ति समस्त-भू-वळप-मध्यदोळ् इ[दु मेरु-पर्वतम्। . प्रस्थदि दक्षिणाभयदोळिHदु कुन्तळ-देश देशदोळ् ।
SR No.010112
Book TitleJain Shila Lekh Sangraha 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchandra Chaudhary
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1957
Total Pages579
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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