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________________ ૪૬ जैन - शिलालेख - संग्रह नाम वरदाम्बिके (?) था । एक दिन अर्हत् परमेश्वरने (१) मुनिभद्रको यह बतलाया कि वे पूर्ण गृहस्थ- शिष्य सिरियण्णको एक सुखी अवस्था में पहुँचायेंगे । उस अनुकूल समय में, जब कि महा मृदङ्गके बाजे बज रहे थे, लिपट गया । कितना भाग्यशाली वह था ? ] [ EC, VIII, Sorab tl., No. 153] ५८० मलेयूर - संस्कृत तथा कचड़ । [ प्रमाथि वर्ष = १४०० ई० ? ( लू. राइस ) । ] [ उसी पहाड़ीपर, बड़े गोल पाषाणके पश्चिमकी ओर ] प्रमाथि वत्सरे ज्येष्ठ मासस्य श्वेत-पक्षके । पञ्चम्यां च तिथौ शुक्रवारे चन्द्रप्रभस्य तु ॥ प्रतिष्ठां कुरुते चन्द्रकीत्ति-योगी स्वयं मुदा । स्व-निषिध्यर्थं उद्दाम - जिन- धम्म- प्रकाशकः || रही थी और भेरी, हमेशा के लिये पुष्प वृष्टि हो साधु सिरियण्ण दुन्दुभि तथा बिन-चरणों में श्री- मूल संघ देशीगण पुस्तकगच्छ इङ्गलेश्वरद बळि कोण्डकुन्दान्वयद सम्बन्धिगळं भुत-मुनिगळ पद-पद्म-भृङ्गरं शुभचन्द्र-देवर प्रियाग्र - शिष्य श्रीमतु सकलकला- प्रवीणरुमप्प श्री - कोपणद चन्द्रकीर्त्ति देवरु माडिसिदरु श्री चन्द्रप्रभस्वामि- गळन्नु । [ सकलकलाप्रवीण, शुभचन्द्रदेव के प्रियाग्रशिष्य, मूलसंघ, देशीगण, पुस्तकगच्छ इड्डुलेश्वर-बळ तथा कोण्डकुन्दान्वय के श्रुतमुनिके पद-पद्म-भृङ्ग, कोयणके चन्द्रकीत्ति-देवने चन्द्रप्रभकी एक प्रतिमा बनवायी और उसकी, अपनी निषिषिके लिये, प्रतिष्ठा करायी। ] [ EC, IV, Chamrajnagar tl, No. 161 ]
SR No.010112
Book TitleJain Shila Lekh Sangraha 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchandra Chaudhary
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1957
Total Pages579
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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