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________________ जैन - शिलालेख संग्रह अगणित-महिमेयोलोन्दिद | सु-ग [ ति ] यनान्तविनेय-वन-नुत-चरितर् ॥ श्रीमत्परमर्गमीरस्याद्वादामोघलाञ्छनम् । जीयात् त्रैलोक्यनाथस्य शासनं विनशासनम् || श्रुत-मुनि-वर्य्याद् भयात् पूज्य श्री देवचन्द्र-परम-गुरुः । सत्-तपो-निळयः ॥ तच्छिष्य आदिदेव ३६६ ... शुभमस्तु ॥ [ ( उक्त मितिको ) प्रसिद्ध श्रुतमुनिके चरणोंका उपासक देवचन्द्रमुनिपने स्वर्गलाभ किया । श्रुतमुनिके शिष्य संसार- विख्यात, देशी-गणके देवचन्द्र- प्रतिप यतियों के कुलमें तिलक-समान थे, वे आदिदेवके गुरू थे। उनकी और भी प्रशंसा, जिसमें कहा गया है कि उन्होंने एक ध्वस्त जिनमन्दिरका पुनरुद्धार करवाया था । श्रुतमुनि से सन्मानित देवचन्द्र थे जिनके शिष्य आदिदेव थे । ] [ Ec, VIII, Sorab tl., No 260 ] ५६४ हिरे आवलि - कमद [ वर्ष प्लवंग - १३६० ई० ( लू० राइस ) 1 ] [ हिरे व्यवखिमें, ध्वस्त जैन वस्ति के सामने हवे पाषाण पर ] स्वस्ति श्रीमतु प्लवंग-संबध्छुरद अस्वैम- बहुळ- ञ्चमी - शुक्रवारदन्दु श्री मूल संघद वारिसेन- देवर गुड्ड मसण-गौडन मग गोरव गौड पञ्चनमस्कार -समाधि-विधियिं स्वस्तनाद || " [ लेख स्पष्ट है । १३६७ ई०; राजा के नामका उल्लेख नहीं है । ] [Ec, VIII, Sorab tl., No 109]
SR No.010112
Book TitleJain Shila Lekh Sangraha 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchandra Chaudhary
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1957
Total Pages579
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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