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________________ हिरे - आवळिके लेख ३६५ [ बिस समय विजयनगर और दूसरे समस्त पट्टण ( नगरों ) का अधीश्वर, अभिनव-बुक - राय राज्य कर रहा था :-- सिद्धान्त - देवका गृहस्थ- शिष्य, आवळि बेच - गौडके पुत्र चन्द गौडका छोटा भाई, ( उक्त मितिको ), सन्यपन और समाधि - विविसे मरकर, स्वर्ग गया । उसकी प्रशंसा में श्लोक | ] [ Eo, VIII Sorab tl, No 102 ] ५६३ कुप्पहूरुः - संस्कृत तथा कक्ष । [ शक १२८१ = १३१७ ई० ] [ कुप्पटूरमें, जैन-वस्तिके पास के वीरकलू पर ] शक- कार्ल नव-वारण-द्वि-शशि-संख्योक्त-प्लवंगान्दत् - ॥ त्सुकदाषाढद मासदोळ् विधु-लसद् वारं समन्तोन्दिरत् । प्रगट - बेत्ततिसय्यत्रा श्रत- मुनि श्री पाद सेवा -रतर् । सु-कवीन्द्र-स्तुत देवचन्द्र मुनिपर स्वर्-लोकमं पोर्दिदर् ॥ श्रुत-मुनिगळ शिष्यर भू -। नुत-देशी- गणद देवचन्द्र- प्रतिपर् । यति-कुल- ललामरत्यूर् -1 जित-तेवरन्ने गदरादिदेवर गुरुगळ् ॥ श्रुत-मुनि-वल्लभेन्द्र-गुरु दीच्चेयनीयलदादियागतूर् -1 जि [त ]-गुण-शील-सच्चरि कूडि वेत्त् । अतिस (श) य - जैन-धर्म्मद निमियोलोन्दि विराबिसि दी -1 क्षितियोळु देवचन्द्र-मुनि-वर्य्यरुमागम को विदन्निंनम् ॥ जीर्ण-बिन-भवनम घरे । वण्णिसबुद्ध रिसि कीत्तियं तळेदरु सम् पूर्णतर-चरितरेनि [सि ] ई । अव - गम्भीर देवचन्द्र-अतिपर् ॥ नेगळ्दा मुनिपर् भव-मा- । लेगळिक सन्यसनदिं समाधियनेदिद्द् । ......
SR No.010112
Book TitleJain Shila Lekh Sangraha 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchandra Chaudhary
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1957
Total Pages579
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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