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________________ है। साथ में लिखा है कि उक्तसंत्र के प्रधान मुनि चन्द्रक्षान्त को कदम्ब नरेश हरिवर्मा ने अपने पितृव्य शिवरथ के उपदेशसे सिंह सेनापति के पुत्र मृगेश द्वारा निर्मापित जैन मन्दिर की श्रष्टाह्निका पूजा के लिए तथा सर्व संघ के भोजन के लिए वसुन्तवाटक नामक ग्राम दान में दिया था । लेख नं० १०४ मैं हरिष्टि नामक एक और श्रमण संघ का उल्लेख है जिसे सेन्द्रक सामन्त भानुशक्ति की प्रार्थना पर कदम्ब नरेश हरिवर्मा ने मरदे नामक ग्राम दान में दिया था। उक्त संघ के प्राचार्य धर्मनन्दि को यह दान में भेंट किया गया था ताकि वे अपने अधीन चैत्यालय की पूजा आदि का प्रबन्ध कर सकें और उस दान का उपयोग साधुत्रों के लिए भी कर सकें । यद्यपि इस लेख में कूर्वक सम्प्रदाय का उल्लेख नहीं है तथापि जान पड़ता है कि वारिषेणाचार्य संघ के समान ही हरिष्टि श्रमण संघ भी कूर्चकों का एक भेद था । द्राविड़ संघ द्रविड़ देश में रहने वाले जैन साधु समुदाय का नाम द्राविड़ संघ है । इस संघ के अनेकों लेख प्रस्तुत संग्रह में है । इन लेखों में इसे द्रमिड़, द्रविड़, द्रविण, द्रविड, द्राविड, दविल, दरविल या तिबुल नाम से उल्लिखित किया गया है । नामगत ये सब भेद लेखक या उत्कीर्णक के कारण हुए प्रतीत होते हैं । द्रबिड़ देश वास्तव में वर्तमान आन्ध्र और मद्रास प्रान्त का कुछ हिस्सा है जिसे सुविधा की दृष्टि से तामिल देश भी कह सकते हैं। इस देश में जैनधर्म पहुँचने का समय बहुत प्राचीन है । उस देश के प्राचीन साधु समुदाय का कोई संघ रहा होगा । उसका क्या नाम था यह हमें मालुम नहीं पर देवसेनाचार्य ने अपने दर्शनसार में अन्य संघों के उत्पत्ति के वर्णन में द्राविड़ संघ के सम्बन्ध में लिखा है कि पूज्यपाद के शिष्य वज्रनन्दि ने वि० सं० ५२६ में दक्षिण मथुरा ( मदुरा ) में द्राविड़संघ की स्थापना की । इस संघ को वहां जैनाभासों में गिनाया गया है और वज्रनन्दि के १. जैन साहित्य और इतिहास ( द्वितीय संस्करण ) पृष्ठ ५५६-५६३
SR No.010112
Book TitleJain Shila Lekh Sangraha 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchandra Chaudhary
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1957
Total Pages579
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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