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________________ शताब्दी या उसके कुछ बाद तक अच्छा संगठित था इसमें कई प्रभावशाली मा थे जिन में से पुन्नागपक्ष मूलगण, बलहारि गण र कण्डूर गह मूलसंघ में शामिल कर लिए गये और नन्दिसंघ को द्रविड संघ और पीछे मूलसंघ ने अपना लिया। कूर्चकसंघ कर्नाटक प्रान्त में ईस्वी पांचवी शताब्दी या उसके पहले जैनो का एक सम्प्रदाय कूर्चक नाम से था और कदम्बवशी राजानों के लेखों (१८६६ ) से शात होता है कि वह निमन्य संघ, श्वेतपट (श्वेताम्बर ) संब एवं यापनीय संघ से पृथक् था । श्रद्धय प्रेमी जो का अनुमान है कि यह कूचेक जैन साधुओं का ऐसा सम्प्रदाय होना चाहिये जो दाढ़ी-मूछ रखता हो। प्राचीनकाल म जटाधारी, शिखाधारी, मुड़िया, कूर्चक, वस्त्रधारो और नग्न आदि अनेक प्रकार के अजैन साधु ये । जान पड़ता है कि इसी तरह जैनों में भा साधुओ का ऐसा सम्प्रदाय था जो दाढ़ी-मूछ ( कूर्चक ) रखने के कारण कूर्चक' कहलाता होगा। वरागचरित्र के कर्ता जटाचार्य सिंहनन्दि सम्भव है ऐसे ही साधना में ये जिनकी जटाओं का वर्णन ( जटयः प्रचलवृत्तयः ) श्राचार्य जिनसेन ने अपने आदिपुराण में किया है। कदम्क्वंशी राजाओं के एक लेख (EL ) में इस सम्प्रदाय का यापनीय और नियों के साथ उल्लेख है। लेख में 'यापनीयनिम्रन्थकूर्चकाना' बहवचनान्त पद सूचित करता है कि यापनीय, निम्रन्थ और कूर्चक तीन पृथक् सम्प्रदाय थे। कृक सम्प्रदाय के भी कई संघ ये इससे उक्त सम्प्रदाय का लेख नं १०३ में बावचन (कुर्चकानाम्) प्रयोग किया है । यदि लेखन०६६ के कूचक पद को बहुवचनान्त मान निम्रन्थ पद को उसका विशेषण मान लें, तो कहमा होगा कि वह संघ नियन्च अर्थात् दिगम्बर सम्प्रदाय का ही एक मेद था। कदम्ब मृगेशवर्मा ने अन्य दो जैन सम्प्रदायों के समय इसे मी भूमिदान देकर सात किला था। दूसरे एक लेख (१०३ ) में इस संघ के अवान्तर वारिषेणाचार्य संघ का उल्लेख
SR No.010112
Book TitleJain Shila Lekh Sangraha 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchandra Chaudhary
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1957
Total Pages579
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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