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________________ विषय में लिखा है कि उस दुष्ट ने कछार, खेत, बसदि और वाणिज्य से जीविका निर्वाह करते हुए, शीतल जल से स्नान करते हुए प्रचुर पाप अर्जित किया ।' इस कथन में सचाई कहां तक है यह तो हम नहीं कह सकते पर इन लेखों में इस संघ के अनेक प्रतिष्ठित और विद्वान् श्राचार्यों को देखते हुए. ऐसा लगता है कि शायद संघीय विद्वेष के कारण मूलसंघ के उक्त प्राचार्य ने एक प्राचीन श्राचार्य के सम्बन्ध में ऐसी कटूक्ति कह दी हो।। इस संघ से सम्बन्धित इस संग्रह के सभी लेख ईस्वी १०-११वीं शताब्दी या उसके ही बाद के हैं। इससे पहले इसकी प्राचीनता का द्योतक शायद ही कोई लेख मिला हो, तथा दसवीं शताब्दी से पहले का ऐसा कोई ग्रन्थ भी नहीं जो इस संघ के इतिहास पर प्रकाश डाले। इस संघ के प्रायः सभी लेख कोङ्गाल्ववंशी, शान्तरवंशी तथा होय्सलवंशी राजाओं के राज्यकाल के हैं जिससे ज्ञात होता है कि उन वंशों के नरेशों का इस संघ को संरक्षण प्राप्त था । अधिकांश लेख होय्सल नरेशों के हैं। इन लेखों से यह भी ज्ञात होता है कि इस संघ के प्राचार्यों ने पद्मावती देवी की पूजा एवं प्रतिष्ठा के प्रसार में बड़ा योग दिया था। इस संघ के कई लेखों में शान्तर और होय्सलवंश के आदि राजाओं द्वारा राज्य सत्ता पाने में पद्मावती के चमत्कार या प्रभाव की सहायता दिखायी गई है । लेखों से यह भी ज्ञात होता है कि इस संघ के साघु बसदि या जैन मन्दिरों में रहते थे। उनका जीर्णोद्धार और अषियों को श्राहार दान, तथा भूमि, जागीर आदि का प्रबन्ध करते थे। १. सिरिपुज्जपादसोसो दाविडसंघस्स कारगो दुटो। णामेण वज्जणंदी पाहुडवेदी महासत्यो ॥ ५ ॥ पञ्चसए. छब्बीसे विक्कमरायस्स मरणपत्तस्स | दक्षिणमहुरा जादो दाविडसंघो महामोहो ॥ २६ ॥ कच्छं खे वसहिं वाणिज्जं कारिऊण जीवन्तो। एहतो सीयलनीरे पावं पउरं च संचेदि ॥२७॥
SR No.010112
Book TitleJain Shila Lekh Sangraha 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchandra Chaudhary
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1957
Total Pages579
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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