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________________ 43 प्रस्तावना १. जैनों का अभिलेख साहित्य: एक परिचय भारतीय इतिहास के विविध अंगों के ज्ञान के लिए अभिलेख साहित्य बड़ा प्रामाणिक साधन है । यह साधन भारतवर्ष में प्रचुर मात्रा में उपलब्ध भी है और विशेष कर दक्षिण भारत में । जैनों का अभिलेख साहित्य बड़ा ही विशाल है । वैसे तो जैनों के ये लेख भारतवर्ष के प्रत्येक कोने से प्राप्त हुए हैं। पर इनका प्राचुर्य दक्षिण और पश्चिम भारत में विशेषतः देखा जाता है । ये लेख जल्दी न नष्ट होने वाले पाषाण एवं धातु द्रव्यों पर उत्कीर्ण पाये जाते हैं। इसलिए इनमें कालान्तर में सम्भावित संशोधन और परिवर्तन की वैसी कम गुंजाइश होती है जैसी कि अन्य साहित्यिक कृतियों में देखी जाती है । इसलिए इनसे प्राप्त होने वाले तथ्यों को प्रथम श्रेणी का महत्व दिया जाता है । पाषाणनिर्मित द्रव्यों पर पाये जाने वाले जैनों के लेख कई प्रकार के हैं, जैसे चट्टानों एवं गुफाओं में मिलने वाले लेख, उदाहरण के रूप में लेख नं० २,७,६१ एवं एलोरा, पञ्चपाण्डवमले, वल्लीमले और तिरुमलै से प्राप्त लेख ; मंदिरों से प्राप्त लेख, जैसे श्रवण वेल्गोल, हुम्मच एवं अन्य तीर्थ स्थानों के कई लेख; मूर्तियों के पादुका पट्ट पर उत्कीर्ण लेख जैसे श्रवण वेल्गोल, बाबू, गिरनार, शत्रु जय, महोवा, स्वजुराहो, ग्वालियर से प्राप्त होने वाले कतिपय प्रतिमालेख; स्तम्भों पर उत्कीर्ण लेख, जैसे मथुरा से प्राप्त लेख नं० ४३,४४ एवं कहायू का लेख तथा दक्षिण भारत से प्राप्त मानस्तम्भों एवं सल्लेखना मरण के स्मारक स्वरूप निर्मित निधिकलसों पर के लेख, मथुरा से प्राप्त कतिपय लेख स्तूपों पर तथा शिलापट्टों पर, मथुरा के श्रायागपटों के लेख और शासन पत्र के रूप में लेख नं० २२८,३३२,३७४ आदि प्राप्त हुए हैं।
SR No.010112
Book TitleJain Shila Lekh Sangraha 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchandra Chaudhary
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1957
Total Pages579
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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