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________________ १६५. उद्धरे (उद्रि ):- इस तीर्थ के १२ वीं से १४वीं शताब्दी के ही लेख इस संग्रह में हैं जिनसे मालुम होता है कि यहाँ प्रसिद्ध तीन बसदियाँ थींपञ्च बसदि, कनक जिनालय एवं एरंग जिनालय । सन् १९२६ में यहाँ का शासक गंगनरेश मारसिंह का पुत्र महामण्डलेश्वर एक्कलरस था उसके सेनापति सिंगरण का विरुद जैनचूडामणि था ( २६१ ) | यह एक्कलरस नाना देशों के विद्वानों और कवियों के लिए कर्ण के समान दानी था । वह वहाँ की सारी प्रवृत्तियों का संचालक था । उसकी फुश्रा सुग्गियव्त्रिरसि ने यहाँ पञ्चवसदि में रहने वाले साधुनों के लिए दान दिया था ( ३१३ ) | एक दूसरी महिला कनकन्त्रिरसि ने वहाँ बहुत से दान दिये ( ३१३ ) । इसका अनुकरण कर दूसरी महिलाओं ने भी दान दिये थे । राजा एक्कल ने कनक जिनालय को भूमि दान दिया था । ( ३१३ ) । सन् ११६ = के एक लेख ( ४३१ ) में उल्लेख है कि होय्सल सेनापति महादेव दण्डनाथ ने वहाँ एरंग जिनालय नाम का एक विशाल जिनालय बनवाया था । उसने उक्त मन्दिर के लिए अनेक दान भी दिये थे । इसी लेख में लिखा है कि उद्धरे बनवासी देश के शासकों के रक्षण और कोष भवन के रूप में अद्वितीय स्थान था । सन् ३८० के एक लेख (५७६ ) से विदित होता है कि इस स्थान में विजयनगर नरेश हरिहर राय द्वितीय के समय में बैचप नामक एक जैन वीर रहता था । उसने अपने देश को तातायियों से बचाने के लिए उनसे युद्ध किया और उन्हें परास्त करने में अपने जीवन की बलि दे दी । ले० नं० ५६६ में बैचप के पुत्र सिरियण्ण की जिनधर्म भक्ति का और उद्धरे की महिमा का वर्णन है । सन् १४०० में सिरियण ने समाधि विधि से देह त्याग किया था। चौदहवीं हे I शताब्दी में उद्धरे स्थान के प्राचार्य यहाँ तक कि इस लिया था । यहाँ के चाय मुनिभद्र प्रति समुन्नत एवं प्रख्यात स्थान था, ने अपने वंश का नाम उद्धरे वंश रख देव ने हिसुगल बसदि बनवायी थी तथा मुलगुन्द के जिनेन्द्र मन्दिर का विस्तार कराया था । ले० नं० ५८८ उनके समाधिमरण का स्मारक है । । हलेबीड : - जैन धर्म का एक महत्वपूर्ण केन्द्र होय्सलों की राजधानी इलेबीड
SR No.010112
Book TitleJain Shila Lekh Sangraha 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchandra Chaudhary
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1957
Total Pages579
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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