SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 112
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १४७ पत्नी भीमले के नाम पर मीम जिनालय तथा भीम समुद्र नामक विशाल तालाब बनवाकर पार्श्वदेव के नाम पर कर दिया था। उक्त लेख में बाचिराज को चतुः समय-धर्मोद्धार-धौरेय कहा गया है। हमें अन्य जैन लेखों से मालुम होता है कि १३ वीं शताब्दी के मध्य तक धार्मिक उदारता की भावना का अच्छा प्रचार था पर तेरहवीं के अन्तिम पाद के बाद १०० वर्षों तक दक्षिण भारत के ऊपर मुस्लिम आक्रमणों के कारण उनसे रक्षा के महत्त्वपूर्ण प्रश्न के श्रागे धार्मिकता का प्रश्न फीका पड़ गया । किसी तरह मुस्लिम श्रातङ्कों का जोर कम करने के लिए विजय नगर साम्राज्य की स्थापना हुई। इस वंश के राजाश्रों में धार्मिक निष्पक्षता का एक सन् १३६३ के एक लेख ( ५६१ ) से विदित होता शासन काल में जैन मन्दिर की सीमाओं के विषय । बड़ा महत्त्वपूर्ण गुण था है कि बुक्कराय प्रथम के में जब हेर नाड के लोगों और मन्दिर के आचार्यों में तो राज्य कीर से उस मामले को जाँच पड़ताल हुई। नागरण ने वृद्धजनों की एक सभा में फैसलाकर मन्दिर की शासन पत्र भी लिख दिया । झगड़ा उठ खड़ा हुआ राज्य के प्रधान मंत्री टीक सीमा बाँधकर इसके पाँच वर्ष बाद सन् १३६= में बुक्कराय के सामने जैनों और भक्तों ( श्रीवैष्णवों ) के बीच धार्मिक विवाद फिर खड़ा हुआ । ले० नं० ५६५ . ( प्रथम भाग, १३६ ) और ले० नं० ५६६ में इन घटनाओं का चित्रण है । इन लेखों में लिखा है कि जैनों ने अपने ऊपर वैष्णवों द्वारा हुए अन्याय की शिकायत लिखित रूप में बुक्कराय से की तब बुक्कराय ने स्वयं इस बात की जाँच की और जैनों के हाथ को वैष्णवों और उनके श्राचार्य के हाथ में रखकर कहा कि जैन दर्शन एवं वैष्णव दर्शन में कोई भेद नहीं 1 जैन धर्म वाले भी पिंच महावाद्य बजा सकते हैं । जैन धर्म की हानिवृद्धिको वैष्णुत्रों को अपनी हानिवृद्धि समझना चाहिये । वैष्णवों को इस विषय के शासन पत्र समस्त बसदियों में लगाना चाहिये। जब तक सूर्य और चन्द्र हैं तब तक वैष्णव जैन धर्म की रक्षा करेंगे। जो इस नियम को तोड़ेगा वह राजा, संघ एवं समुदाय का द्रोही
SR No.010112
Book TitleJain Shila Lekh Sangraha 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchandra Chaudhary
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1957
Total Pages579
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy