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________________ तक कि मङ्गलाचरण के पद्य भी अजैन देवी देवताओं के मंगलाचरण से प्रारम्भ होते हैं। हां, कुछेक में ॐ सर्वशाय नमः, पद्मनाथाय नमः आदि से उनका प्रारम्भ हुआ है । ये लेख निश्चय रूप से जैनाचार्यों की विशाल हृदयता को वचित करते हैं। बैनाचार्यों की इस नीति का अनुसरण जैन नेताओं ने भी किया। ले० नं. १८१ ( सन् १०४८ ) से विदित होता है कि एक जैन महामण्डलेश्वर चामुण्डराय ने बनवसेनाड़ में जिननिवास, विष्णुनिवास, ईश्वरनिवास, और जैन . मुनियों के लिए निवास बनवाये थे। इसके समान ही और दूसरे सामन्त थे जो जैन और ब्राह्मणों में भेद नहीं मानते थे । ले. नं० २४६ से विदित होता है कि नोलम्बवाड़ी के शासक बम्मरस ने सन् ११०६ में एक जैन मन्दिर तथा सपेश्वर देव के लिए चुगी से प्राप्त आय को तथा कई प्रकार के और दानों को दिया था । सामन्तों की ऐसी रुचि को सूचित करने वाले और भी लेख है। ले० नं० ३५६ से मालुम होता है कि सामन्त गोव, महेश्वर, बौद्ध, वैष्णव एवं अहन् इन चार समयों का प्रतिपालक था। ब्राह्मण और जैनों के बीच असाधारण हार्दिक सम्बन्ध था। ले० नं० ४४८ से ज्ञात होता है कि सन् १२०४ में नागर खण्ड के पांच अग्रहारों के ब्राह्मणों ने स्थानीय अधिकारियों, सेठों, नागरिकों और किसानों के साथ मिलकर बन्दिलिके के शान्तिनाथ की पूजा के लिए भूमिदान किया । धार्मिक उदारता के विषय में अदलकुल के सामन्तों का नाम विशेष उल्लेखनीय है । इस वंश के सामन्त विष्णुवर्धन ने सन् ११४० में अपने ही क्षेत्र में एक शिवमन्दिर तथा अदल जिनालय बनवाया था (३१५)। इसी वंश के एक ले० नं ३३३ का मंगलाचरण सर्वधर्म समन्वय की भावना से श्रोतप्रोत है। शिवाय धात्रे सुगताय विष्णवे जिनाय तस्मै सकलात्मने नमः ) । इस लेख में उदारचेता सामन्त बाचि की विस्तार पूर्वक प्रशंसा की गई है। उक्त सामन्त्र ने कैदाल नामक स्थान में न केवल जैन मन्दिर ही बनवाया था बल्कि गंगेश्वर, नारायण, चलवरिवरेश्वर तथा रामेश्वर के मन्दिर भी बनवाये थे। उसने अपनी
SR No.010112
Book TitleJain Shila Lekh Sangraha 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchandra Chaudhary
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1957
Total Pages579
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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