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________________ १४८ होगा। ले.नं० ५६६ के अन्त में लिखा है कि जैनों और वैष्णवों ने मिलकर बसवि सेटिको संघ नायक की उपाधि दी। उपयुक्त तीन लेखों से ज्ञात होता है कि विजयनगर नवोदित हिन्दू समाज के अधिनायकों में देश की सुरक्षा और शान्ति के साथ धार्मिक निष्पक्षता का बड़ा ध्यान था। इस बात के प्रमाण अन्य लेखों में भी मिलते हैं जो कि इस संग्रह में नहीं है। धर्म समभाव की इस भावना का प्रभाव हम कतिपय शिलालेखों के प्रारंभिक मंगल पद्यों में भी पाते हैं। ले.नं. ६४६ पार्श्वनाथ जिनेश्वर के नमस्कार से प्रारम्भ होता है । तत्पश्चात् जिनशासन की प्रशंसा व पञ्चपरमेष्ठियों के नमस्कार के बाद नमस्तुगशिरः प्रादि पदों से शम्भु की स्तुति है। उसके बाद बराह और शम्भु की स्तुति की गई है । ले० नं० ६८८ में भी जिनशासन की स्तुति तथा शम्भु की स्तुति साथ साथ की गई है। जैन और शैवों के परस्पर मेल मिलाप को प्रदर्शन करने वाले एक महत्वपूर्ण लेख की ओर भी हम ध्यान दें। ले० नं. ७१० के प्रारम्भ में जिनशासन और शम्भु की स्तुति के बाद एक घटना का उल्लेख है। विजयनगर के प्रारवीडू वंश के नरेश बेकटाद्रि द्वितीय के राज्य में एक वीर शिव हुचप्प देव ने हलेवीड की विजय पार्श्व बसदि के खम्भे पर लिंग मुद्रा लगा दी थी जिसे विजयप्प नामक जैन ने साफ कर दी। तब पद्यगण सेट्टि आदि जैनों ने यह समझा कि इससे दूसरे धर्म वालों की भावना को क्षति पहुँचेगी, वीर शैवों के मुखियों से निवेदन किया। इस पर दोनों सम्प्रदाय के लोग इकट्ठे हुए और उचित जांच के बाद उन्होंने प्राशा निकाली की कि विभूति और विल्वपत्र प्रदान करने के बाद जैन लोग प्राचन्द्रसूर्य अपनी सब धर्म विधि कर सकते हैं। इसके बाद इस शासन पत्र पर राज्य की स्वीकृति ली गई और वह वीर शैवों की ओर से जैनों को समर्पण किया गया । लेख के अन्त में वीर शैव सम्प्रदाय ने अपने उदार भाव दिखलाये हैं कि जो व्यक्ति जैन धर्म का विरोध करेगा वह महामहत्तु के चरणों से निकाल दिया बागा, वह शिव, जंगम तया काशी, रामेश्वर के लिंग का द्रोही समझा जायगा।
SR No.010112
Book TitleJain Shila Lekh Sangraha 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchandra Chaudhary
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1957
Total Pages579
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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