SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 82
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ को करने का में व्यक्ति विशेष को इषि संब और शनै: वनैः उसे जिनान के अनुकूल बनाने का कथन करता है। उत्तम दिवस ही उपदेश दिया जाता है इस स्पा में मौत के सिद्धांतों का मर्म और परिपालक बन जाता है । वहाँ उसको मार्मिक संस्था संट हो जाती है। ध्यान चूंकि चंचल होता है इसलिए उससे विरत रखने के लिए पूर्ण विषयक कथा साहित्य का प्रयोग किया जाता है। धर्मध्यान को सुस्थिर रहने के लिए उसकी वस्तुनिष्ठ (तीव्रता, याकार, गति, व्यवस्थित रूप, नवीनता प्रनुचितन) पर मनोवैज्ञानिक ढंग से विचार किया जाता है" सनीवैज्ञानिक विश्ले इस प्रकार जैन वन में 'वरित ध्यान के स्वरूप का धरण करने से हम इस निष्कर्ष पर पहुचते हैं कि ध्यान व्यक्ति की अशुद्ध मानसिक मस्था का विशुद्ध मानसिक मनस्था की मोर क्रमिक है । 3. जैन भूगोल समग्र भारतीय वाङ्मय की मोर दृष्टिपात करने से यह निष्कर्ष निकालना तिहासिक नहीं होगा कि उसका प्रारम्भिक रूप बंति परम्परा के माध्य पीढ़ी दर पीढ़ी गुजस्ता हुआ उस समय संकलित होकर सामने माया जबकि उसके धार पर काफी साहित्य निर्मित हो चुका था । यह तथ्य वैदिक, जैन और बौद्ध तीनों संस्कृतियों के प्राचीन पन्नों के उलटने से उद्घाटित होता है। ऐसी स्थिति में प्रत्कीन सूत्रों में अपनी आवश्यक्ता परिस्थिति और सुविधा के अनुसार परिवर्तन मौर परिवर्तन होता ही रहा है । वेद, प्राकृत मौर जैन भागन तथा त्रिपिटक साहित्य, का विकास इस तथ्य का निदर्शन है । इसी प्रकार वह तथ्य भी हमसे छिपा नही है कि तीनों संस्कृतियों ने अपने साहित्य मे तत्कालीन प्रचलित लोक कथाओं और लोक गाथाम्रों का अपने-अपने ढंग से उपयोग किया है। यही कारण है कि लोक कथा साहित कथायें कुछ हेर-फेर के साथ तीनो संस्कृतियों के साहित्य में हुई है । इस कथा सूत्रों के मूल उस्स को खोजना परम नहीं है। किस सूर्य की किसने " कहां से लेकर आत्मसात किया है निर्विाद से हल नहीं किया जा सकता। मानकर व अधिक उचित होगा कि इस प्रकार के कर्णालीक कथाओं के मंच रहे जिनका उपयोग सही धर्माचायों से र्मिक सिद्धांत' के प्रतिपादन की पृष्ठभूमि में किया है। तक चौबोलिक मान्यता का प्रश्न है, यह विषय भी कम विवादास्पद नहीं। दोनों संस्कृतियों के मौकों का उस एक ही रहा होगा जिसे विकिया
SR No.010109
Book TitleJain Sanskrutik Chetna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpalata Jain
PublisherSanmati Vidyapith Nagpur
Publication Year1984
Total Pages137
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy