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________________ 44. उपदेशों पर चलकर बहुत कुछ निर्मोही हो जाता है मीर उसकी मानसिक अनुत्तिया aaree netra से दूर हो जाती हैं। शुक्लयन में साधक प्रात्मतत्व में चित्र को स्थिर करता है। वाय के चार मेवाश्रये ई-पृथक विवकं सविन पर विचार करना), एकस्व ब्रिक मविवारी (द्रव्य की किसी एक रूप से चिंतन करना), सूक्ष्म क्रिया मनिवृत्ति (उच्छवास मादि सूक्ष्म क्रियात्रों से निवृति के पूर्व उत्पन्न होने वाला घ्यान), व्युपरत किया निविः अथवा समुक्रिया प्रतिपाति (स्वसोवास भादि समस्त बाधों के बांदो से प्रकट हुई विश्वास अवस्था) 14 विवेक, व्युतार्ग, अव्यथा, और सम्मोह, ये ध्यान के बार कक्ष हैं। क्षति, मुक्ति, बाजेव और मार्दव ये चार उसके हैं। अपायानुप्रेक्षा तुप्रेक्षा, प्रनन्त वृत्तितानुप्रक्षा और विपरिणामानु, क्षा ये चार उसकी मनु खाये है। शुक्ल ध्यान का प्रथम ध्यान भावें गुणस्थान से ग्यारहवें गुण-स्थान तक, दूसरा ध्यान तेरहवे सुरपस्थान में, तीसरा ध्यान तेरहवें गुल स्थान के अन्तिम भाग मे मौर चौथा ध्यान चोदने गुणस्थान मे होता है। महब दो ध्यान साल बन होने के कारण श्रवज्ञानी के होते हैं तथा शेष दो ध्यान निरालम्बन होने के कारण केवलज्ञानी के होते हैं 7 ध्यान के उपर्युक्त चार मेदो में व्यक्ति के विकास की अवस्थायें प्रदर्शित की गई है । ध्यान का स्वरूप जैनंतर दशनों में भी वर्णित है, त्मक विधान की समरचनायें उनमें दिखाई नही देती । सबसे बड़ी विशेषता है | परन्तु मानव के विकासाजनधम क ध्यान की यह जैन दर्शन की दृष्टि से प्रात्मा का स्वरूप यद्यपि मूलतः विशुद्ध माना गया है, परन्तु विविध कर्मों के संसर्ग से वह भविशुद्ध होता जाता है। ससार की सर्वाfue wa भावना का प्रतीक प्रथम भास ध्यान हैं मीर उससे कुछ कम द्वितीय रोज ध्यान है । ये दोनो भातं मोर रौद्र ध्यान ग्रप्रशस्त माने गये हैं। शेष अन्तिम दो ध्यान प्रशस्त माने जाते हैं और वे मुक्ति कारण है । प्रशस्त और प्रवस्त ध्यानो के बीच की एक ऐसी संक्रमण अवस्था है जहाँ साधक की मानसिक चेतना पापमयी वासना से कुछ सीमा तक दूर हो जाती है मानवीय धर्म की ओर अपना पग बढ़ाने का प्रयत्न करता है में नानक ने मनोवैज्ञानिक ढंग से पूर्गबड़ी मात् प्रवृतियों में सत्प्रवृत्तियों 1. तत्वार्थ वार्तिक, 9.36. 2. तत्वार्थ सूत्र, 8.36. 3. वही, 9. 37.38,
SR No.010109
Book TitleJain Sanskrutik Chetna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpalata Jain
PublisherSanmati Vidyapith Nagpur
Publication Year1984
Total Pages137
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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