SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 77
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 1. दिपिकल्पना (स्यादस्ति) । 2. प्रतिवेधकल्पना (स्यात्रास्त)। 3. नमः विपि प्रतिष-कल्पना (स्मादस्तिनास्ति)। 4. युगपद् विपि प्रतिषेष-कल्पना (स्यादवसभ्यम्।। 5.विषिकल्पना पौर मुगपद् विपि प्रतिषेधकल्पना स्वाभाविक मल 6. प्रतिषेध कल्पना पौर युगपद् विषि प्रतिषेध-कल्पमस्या 7. मशः मोर युगपद् विधि प्रविषध- कल्पना (स्यादस्तिका नाति मे. इन सात भङ्गो के अतिरिक्त पाठवा भङ्ग होना सभव नहीं । इन भलों में मूलत. तीन भङ्ग है । तीन वस्तुप्रो का समिधरण शानिक माधार पर सात वस्तुभों से अधिक वस्तुमो की उत्पत्ति नहीं कर सकता । इसलिए आत प्रङ्गो से अधिक मङ्ग हो नही सकत । सात भङ्गों के क्रम-विधान में पाचायों के बीच मतभेद दिखाई देता है। सर्वप्रथम भाचार्य कुन्दकुन्द ने सात मङ्गो का नामोल्लेख मान किया है। उनमें से प्रवचनसार (गाथा 2.23) मे स्वादवक्तव्य को तृतीय भङ्ग और स्यादस्ति नास्ति को चतुर्थ भङ्ग माना है किन्तु पचास्तिकाय (गाया 14) मे स्वादस्तिनास्ति को उतीय पोर प्रवक्तव्य को चतुथ भङ्ग माना है। इसी तरह मकलंकी ने अपने तस्वार्थवातिक म दो स्थलो पर सप्तभङ्गो का कथन किया है। उनमें से एक स्थल (पू. 353) पर उन्होने प्रवचनसार का क्रम अपनाया है और दूसरे स्थल (पृ. 33) पर पचास्तिकाय का । सभाष्य तत्वार्याधिगम (म./31 स.) पौर विशेषण- श्यक भाष्य (गा. 2232) में प्रथम क्रम अपनाया गया है। किन्तु प्राप्तीमीमासा (कारिका 14), तत्वार्थश्लोकवातिक (पृ. 128), प्रमेयकमलमार्तण्ड (पृ. 682), प्रमासनमवस्वालोकालकार (परि. 4, सू. 17-18), स्यावादमजरी (पृ. 189), सप्तममीवरसिसी (प.2) और नयोपदेश (पृ. 12) में दूसरा क्रम अपनाया गया है। इससे लगता है कि दार्थनिक क्षेत्र मे स्यादस्ति-नास्ति को तृतीय और स्यादवक्तव्य को बर्ष मन मानकर सप्तभङ्गी का उल्लेख किया है। वस्तुतः स्यादस्तिन्नाम्ति को तृतीय मा मानना कही अधिक उचित है। शायद यह शीलांक को भी स्वीकार रहा होगा। उनके द्वारा उल्लिखित भङ्गो से यह बात अधिक स्पष्ट हो जाती है। (1) क्रिया स्थानो के वर्णन के प्रसग मे पार निभङ्गो का उल्लेख है1. अमिनो देवनामनुबन्ति विदन्ति, 2. सिवास्तु विन्ति नानुभवन्ति, । ३. अमिनोनुभवन्ति न पुनविदन्ति, । 4. अचीवास्तु न विवन्ति नाप्यमुपवन्ति ।
SR No.010109
Book TitleJain Sanskrutik Chetna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpalata Jain
PublisherSanmati Vidyapith Nagpur
Publication Year1984
Total Pages137
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy