SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 78
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 한 1 + (2) के पत्रके तस्यैव च निष्ठि निष्ठितं । - . 3. अभ्यस्तस्य निष्ठितं । 4. समस्त धन्वस्य निष्ठितं । 71 और बौद्ध साहित्य में भी ये चारों भङ्ग दिखाई देते हैं। संजय वेल गौतम बुद्ध की agonifiटयां प्रसिद्ध ही है। मक्बलिगोशाल का राशिक- सिद्धांत की भी इस सन्दर्भ में उल्लेख किया जा सकता है। चतुष्कोटिक सिद्धांत की अपेक्षा त्रिकोटिe fain प्राचीनतर होना चाहिए। मरियमविकास में विगष्ठम के बहुयायो दोषला परिव्राजक के कथन में यह त्रिकोटिक प्रश्न विशेष उल्लेखनीय है 1. सब्जं मे खमति (स्यावस्ति) । 2. सव्वं मे न खमति (स्यान्न । स्ति) 3. एकवं मे संमति, एकच्च मे न खमति इस उल्लेख से यह स्पष्ट हो जाता है कि की गणना तृतीय भङ्ग के रूप में होनी चाहिए । (स्यादस्ति नास्ति ) । 'स्यावस्ति नास्ति' नामक मङ्ग 2. ध्यान का मनोब ज्ञानि विश्व वरप मानवीय विज्ञानों में मनोविज्ञान भाज एक प्रत्यन्त लोकप्रिय विषय हो गया है । व्यक्ति की प्रत्येक क्रिया का सबन्ध उसके मन से जोड़ा जाता है। यह तथ्य संगत है मी जीव की मानसिक अवस्था का ही चित्रेण निस्संदेह उसकी दैनिक . क्रियामों में होता है । भाव, उद्वेग, सर्वेग, स्मृति, कलमा, विस्मृति, अनुभव, भावत ध्यान, प्रत्यक्षीकरण प्रादि असगी से वह सम्बद्ध रहता है । यहीं उसको क्षेत्र है। दूसरे शब्दों में हम कह सकते है कि मनोविज्ञान प्राणों की क्रियाओं प्रथवा उसके ' व्यवहारों का अध्ययन प्रस्तुत करता है । जैन वन में वात ध्यान का क्षेत्र भी मनोविज्ञान के उक्त क्षेत्र से भक् नहीं । प्राचीन काल में मनोविज्ञान दर्शन के साथ बंधा हुआ था । परन्तु प्राधुनिक मनोविज्ञान ने दर्शन के क्षेत्र से हटकर अपना स्वतंत्र अस्तित्व बना लिया है। दर्शने के क्षेत्र में संसार और मोक्ष की बात पाती है । परन्तु आधुनिक मनोविज्ञान साधारातः इससे दूर है । यद्यपि वहाँ संवेन मादि भाव का सुन्दर विक्लेक्शन है परन्तु कर्म जैसे सिद्धांतों से उसका सीधा सम्बन्ध नहीं । तुलनात्मक दृष्टि देखा जाये तो स्थूलतः प्रातुनिक मनोविज्ञान और जैन दर्शनको म्यानम विज्ञान समान रूप से व्यक्ति के मन अथवा मानसिक क्रियाओं पर केन्द्रित भ
SR No.010109
Book TitleJain Sanskrutik Chetna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpalata Jain
PublisherSanmati Vidyapith Nagpur
Publication Year1984
Total Pages137
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy