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________________ है और अनेकान्तवाद लिन को निर्दोष घोषित करता है। दूसरे दों में ग्रह कह सकते हैं कि अनेकान्तवाद पूर्वक स्माद्वाद होता है क्योंकि निस्ट चिह्न के बिना thega भाव का प्रयोग सम्यक् रोति से नहीं हो सकता। जैवदर्शन के अनुसार वस्तु है । वह म संद है, और न प्रसद्, न नित्य है, न प्रतित्य किन्तु किसी अपेक्षा से सद हैं, मसत् है, नित्य है और प्रनित्य भी है। मदः सर्वे सद we, free, प्रनित्य इत्यादि एकान्तवादों का निरसन करके वस्तु का स्वरूप कचित् सत्, ब्रसत्, नित्य, मनित्य निर्धारित करना धनैकान्त है । पारस्परिक विचार-संघर्ष को दूर कर शान्ति को चिरस्थायी बनाने का यह एक ममोष वस्त्र है । इस स्थिति में यह परापवादक कैसे हो सकता है- नेत्रे frees freeष्टक, कौटसर्पान् । सम्यक् यथा व्रजति, तत्परिहृत्य सर्वान् ॥ कुकाम कुश्रुति कुमार्ग, दृष्टि दीवान, सम्यक् विचारयत, कोडम परापवादः ॥ स्याद्वाद में 'स्यात्' शब्द कवित् म का चोत है। यह शब्द संतय, सभावना, कदाचित् भ्रथवा अनिश्चित अर्थ का प्रतीक नहीं, प्रत्युत अपेक्षाकृत 'दृष्टि से सुनिश्चित अर्थ की अभिव्यक्ति करने वाला है। इसमें स्व-पर द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव से वस्तु के सन्दर्भ मे विचार किया जाता है। वस्तु के नित्यानित्यात्मक भेदभेदात्मक, एकानकात्मक मादि तत्वो को स्याद्वाद एक सुनिश्चित दृष्टिकोण की पृष्ठभूमि मे उपस्थित करता है । वस्तु की तीन अवस्था रहती है । सर्वप्रथम उसको उत्पत्ति होती है, उसके बाद भित्र-भित्र पर्यायों में परिणमन रूप विकास दिखाई देता है जिसे व्यय कहते हैं इस परिणमन मथवा व्यय की अवस्था मे कुछ तत्व ऐसे भी रहते हैं जिनमें परिवर्तन नही होता । इन अपरिवर्तनशील तत्वों को धौव्य कहा जाता है। इस सिद्धान्त को सुस्पष्ट करने के लिए शीलाकाचार्य ने एक परम्परागत प्रसिद्ध उदाह रा दिया है- घटमविर्थी, नाशोत्पादस्थितिष्वयम् । we प्रमोदमाध्यस्थ्य, जनो याति सहेतुकम् ।। सप्तमी शब्द मे विधेयात्मक और निषेधात्मक प्रवृद्धि हुमा करती है । पदार्थ में ये दोनों प्रकार के तत्व मनन्तरूप से विद्यमान हैं। उनका कथन प्रकाश सन्नी द्वारा से करने का प्रयत्न किया गया है। एक वस्तु में afree fafe और निषेध की कल्पना को सक्षम इस प्रकार से निर्दिष्ट हूँ । में प्रत्यक्ष कहा जाता है +
SR No.010109
Book TitleJain Sanskrutik Chetna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpalata Jain
PublisherSanmati Vidyapith Nagpur
Publication Year1984
Total Pages137
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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