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________________ कच मागेरा नामक ग्राम में हमारपाका विवाह 13 की मस्यामा मोर853 में पत्नी की मृत्यु के बाद उन्होंने मुलि सेक्षा ली। इसकेपार त और प्राकृत ग्रंथों का गहन अध्ययन किया और बीवन उत्तरकाश क माल का कार्य हाप में लिया। वे शतावधानी से भार वपस्वी' । इस कोम के लेखक पं.हरगोविन्वयास विक्रययन मेटकर सब बि.सं. 1945 में राधनपुर (गुजरात) में हुमा । उनको शिक्षामा मत माक्षिय जन पाठशाला, वाराणसी में हुई। यही रहकर उन्होंने संस्कृत, और प्राकृत भाषा का अध्ययन किया । प. बेघरदास दोसी उनके सहाध्यायी रहे हैं। दोनों विधान पालि का अध्ययन करने श्रीलंका भी मये और बाद में वे संस्कृत, प्राकृत और सुबरावी के प्राध्यापक के रूप मे कलकत्ता विश्वविद्यालय में नियुक्त हुए । न्यायव्याकरणवीर्य होने के कारण जन-जनेतर दार्शनिक प्रयों का गहन अध्ययन हो पुका का होविजय जैन ग्रंथमाला से उन्होने अनेक सस्कृत-प्राकृत ग्रंथो का संपादन भी किया। लगभग 52 वर्ष की अवस्था में ही सं. 1997 मेवे कालकवशित हो गये। अपने इस अल्पकाल में ही उन्होने भनेक ग्रंथों का कुशल सम्पावन और लेखन किया। ___ सेठजी के प्रथो में पाइयसद्द महण्णव का एक विशिष्ट स्थान है। उसकी रखना उन्होने सम्भवतः भभिान राजेन्द्रकोश की कमियो को दूर करने के लिए की। जैसा हम पीछे लिख चुके है, सेठजी ने उपर्युक्त बंम की मार्मिक समीक्षा की मोर उसकी कमियो को दूर कर नये प्राकृत कोस की रचना का सकल्प किया उन्होंने स्वयं लिखा है-"इस तरह प्राकृत के विविध भेदों और विषयों के जैन तवा गीतर साहित्य के यथेष्ट शन्दो से सकलित, मावश्मक अवतरणों से मुक्त, मुर एवं प्रामाणिक कोश का नितान्त प्रभाव बना रहा है। इस समाव की पूर्ति के लिए मैंने अपने उक्त विचार को कार्य रूप में परिणत करने का बड़ सकल्प लिया और तदनुसार शीघ्र ही प्रयत्न भी शुरू कर दिया गया । जिसका फल प्रस्तुत गोम के रूप में चौदह वर्षों के कठोर परिश्रम के पश्चात माज पाठकों के सामने उपस्थित लेखक के इस कथन से यह स्पष्ट है कि कोश के तैयार करने में उन्होंने पर्याप्त समय भौर शक्ति लगायी । प्रकाशित संस्करणों को शुद्ध रूप में अंकित करने का एक दुष्कर कार्य था, जिसे उन्होने पूरा किया। इतना ही नहीं, बल्कि उन्होंने इस वृहत्काय कोश का सारा प्रकाशन-व्यय भी स्वय उठाया कोषकार ने भावनिक 1. • पाइयसहमहष्णव, भूमिका, द्वितीय संस्करण, पृ. 14,
SR No.010109
Book TitleJain Sanskrutik Chetna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpalata Jain
PublisherSanmati Vidyapith Nagpur
Publication Year1984
Total Pages137
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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