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________________ करेंगे। वह समभाव उनकी प्रतिम सामना तक बता रहा। मामला से महामि निकमस कर महावीर कर्मरिणाम पहुंचे जहां उन्हें कोई पहिचान स मि वे एक महासामन्त के पुत्र थे इसलिए शायद ये जन-जीवन में नहीं पा सके होंगे। समूची साधना के बीच इन्द्र मादि जैसी कोई न कोई विभूति सनका रमण करती रही। उपसों का प्रारम्भ मौर पन्त दोनों गोपालक सेगमा है।गों से सम्बद्ध होने के कारण क्यो न इस संयोग को वात्सल्य घंव का प्रतीक माना गाय जी जनधर्म का प्रमुख अंग है। तपस्वी महावीर पर प्रथमतः ग्वाला जब प्रहार करने दौड़ता है तो तुरन्त ही उसे भान करा दिया जाता है कि-मो मूर्ख? तू यह क्या कर रहा है ? क्या तू। नहीं जानता ये महाराज सिद्धार्थ के पुत्र वर्षमान राजकुमार हैं । ये मास्म-कल्याण के साथ जगत कल्याण के निमित्त दीक्षा धारण कर साधना में लीन है। यह कथन साधना का उद्देश्य प्रकट करता है । इस उद्देश्य की प्राप्ति मे साध्य मोर साधन दोनों की विशुदि ने साधक को कभी विचलित नहीं होने दिया। यहाँ इन्द्र वर्षमान की सहायता करना चाहता है पर साधक वर्षमान कहते है कि "महन्त केवलज्ञान की सिद्धि प्राप्त करने में किसी की सहायता नहीं लेते। जितेन्द्र अपने बल से ही केवलज्ञान की प्राप्ति किया करते हैं। इसके बावजूद इद्र ने सिद्धार्थ नामक व्यतर की नियुक्ति कर दी जो वर्षमान की अन्त तक रक्षा करता रही। हम जानते हैं, महावीर के पिता का नाम सिद्धार्थ था और मौतम का भी नाम सिद्धार्थ था। सितार्य को व्यतर कहकर उल्लिखित करने का उद्देश्य यही ही सकता है कि पटना-लेखक गौतम बुद्ध के व्यक्तित्व को नीचा करना चाहता रहा हो । दोनो भो मे इस प्रकार की घटनामो का प्रभाव नहीं । इन्द्र को वैदिक संस्कृति मे प्रधान देवता का स्थान मिला है। वर्षमान के चरणों में नतमस्तक कराने का उद्देश्य एक मोर साधक के व्यक्तित्व को ऊंचा दिखाना और दूसरी और अमल सस्कृति को उच्चतर बतलाना रहा है । सिदार्थ यदि व्यवर होता तो उसने महापौर 1. पारस वासाई बोसट्टकाए चियत्त देहे थे केई उपसाया समुप्पबति से जहा, दिव्या वा, माणुस्सा वा, सेरिछिया वा, ते सम्मे उबसगे समुप्पण, समाणे सम्म सहिस्सामि, खमिरस्सामि, महियासिस्मामि ॥माचारांग. ७साध्यवन 2, 40 23, पत्र 391 2. निष्ठिशलाकापुरुषचरित, 10,3,17-26 भावश्यक पूणि 1, पृ. 270 | सक्को पग्मितो-सियत्यति विषष्टिशलाकापुरुषचरित, 10. 3. 29-33
SR No.010109
Book TitleJain Sanskrutik Chetna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpalata Jain
PublisherSanmati Vidyapith Nagpur
Publication Year1984
Total Pages137
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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