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________________ कोबाला प्राम वर्ग में ही मस्थिग्राम के साम्यवन में हुए म के उपवर्य का निवारण स्वों नहीं किया ? साधना के सरे वर्ष भोराक सन्निवेश में इसी सिवा ने वर्षमान की मो. गाँधा एक बड़े क्योतिषी के रूप में फैला दी। फलतः ये सारी जनता के सोकप्रिय होमएं, परन्तु यहां रहने वाले मच्छन्दक ज्योतिषी की माजीविका पर कठोर पापात पा। यह जानकर बर्षमान ने यहां से बिहार कर दिया। यह उनका महाकाव्य या भाविष्यवाणी के और भी पनेक उदाहरणे यहाँ मिलते है बिनको सम्बाय मी सिवार्य से रहा है । अत: सिद्धार्थ नामक कोई अन्य देव नहीं बल्कि व्यक्ति होना जहिए। हो सकता है, उसका नाम भी सिद्धार्थ देख रहा हो। सपनाकाल के प्रथम तेरह मास तक कहा जाता है कि वर्षमान मात्र एक वस्त्र ग्रहण किये रहे । उसका दुध भाग एक निर्षन पाहण की याचना पर उन्होंने उसे दे दियी और शेव भाग स्वतः गिर गया। इस वस्त्र को देवदूष्य बस्त्र कही गया। पाचारांग पोर कल्पसूत्र में देवदूष्य वस्त्र के गिरने की बात तो मिलती है पर बाल को देने की घटना का बहा कोई उल्लेख नहीं मिलता। ण, टीका मादि में उसका उस्लेस अवश्य हुमा है। देव बस्त्र एक विवाद का विषय रहा है क्योंकि उसका सम्बन्ध सबैल मी यस परम्परा से जोड़ दिया गया । जो माँ हो, इसमा वम है, इसपटमा का सम्बन्ध ब्राह्मण सम्प्रदाय की भिक्षावृति को उपाटित करना तथा उसे महावीर बनवान ने की अभ्यर्थमा करना रहा होगा । साम्प्रदायिकता की भावना का सजिवन यहाँ विमा देखा है। वैसे महागीर बीबरामी में यह निर्विवाद : परम का कोई प्रयोजन नही रहा होगा । इस उत्तरकालीन विवाद समझना साहिए । देवष्य मम्द का प्रयोग भी इस बात को स्पष्ट करता है। महापौर ने इसे पल को नमन 13 माह तक रखा और उनका सामना काल भी संगम तेरह वर्ष रहो । संस्मी की बहसमानता भी इस सन्दर्भ में विचारसीव है। उत्तर भारत को पीत और उणेता, दोनों पूरे जोर पर रहती है। महावीर ने उन दोनो को भली-भांति सहा । कहा जाता है, साथमा काम में महागीर कभी सौ बारह वर्ष तक कोई सोये न यह सम्भव-सा नहीं लगता। सोने का तात्पर्य यदि प्रभाव से लिया जाय तो अवश्य हम कह सकते हैं कि महापीर पूर्खतः अप्रमादी रहेपरि पर्पनी साधना के लक्ष्य पर प्रतिपल जांबत रहकर ध्यान करते रहे। से ऐसे न साने वालों के कुछ उदाहरणं पाजकस अवश्य मिलते हैं। बिहार, लनता है, प्राकतिक पापवानों का बर या है। वर्षमान की सामनाकाल प्रथम में ही नहीं अकाल पड़ा था। परिवानक भूक पापों को भी अपने भाषण में बाहर कर दिया करते थे परन्तु काणिक वर्षमान सेवा नहीं कर HP-AHA
SR No.010109
Book TitleJain Sanskrutik Chetna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpalata Jain
PublisherSanmati Vidyapith Nagpur
Publication Year1984
Total Pages137
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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