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________________ krit 1. गोवा के परसाब मान-वन शरिष की उसमें पता की विस.प्रचार उसमें पापको प्रकर्षता न होने में बह सप्तम नरक नहीं पाता तए पुन या राता की उतनी प्रार्षता उसमें नहीं होती कि यह मोल प्राप्त कर सके। पुरुष में पुग्ध और पाप दोनों की प्रर्वदा होती है इसलिए से मुक्षि वा महामारक गमन का विशाल वामा, गया है। 2.स्त्रीक समेत संबमी है इस्लीलए उसका प्राचार के समान होता है। संबर का प्रसाद मोष की प्राप्ति में बारक होता होई किए सामों के द्वारा उसे प्रवंधनाय कहा गया है। प्रमेममस माम मालवालाम की एक गाबा का उल्लेख है जिसमें कहा था कि सीक्वं की दीमित मावि माजरे ही सीमित तानु के द्वारा भी बंदनीय रहा है। परिससय दिक्खियाए पाए पण दिक्खियो साह। अभिगमण बंदणरणमसरण पिणएण सो पुण्यो ।। 3. वस्त्रादि बाह्य परिग्रह तथा अनुरागादि प्राभ्यंतर परिग्रह भी स्त्रियों में अधिक रहता है । दि उन्हें मोक्ष प्रधिकारिणी माना जाय तो महकों को भी मोक्ष प्राप्त हो सकता है, यह बात माननी होगी यो समुचित नहीं हो पा सकता। 'जीतकल्प' में पाई गाथा से भी यही प्रकट होता है। वस्त्र पहल करने में प्राक्षियों का अपपात तथा संभूर्छन जीवों की उत्पत्ति होती है । इस सन्दर्भ में बह प्रश्नमा किया जा सकता है कि विहार करने में भी यह होता है। यह प्रश्न मुक्ति संक्त नहीं क्योंकि प्रयत्न पूर्वक संयम पूर्वक चलने पर भी यदि प्राणिपात होता है तो मानिस नहीं, अहिंसा है। बापाभ्यांतर परिग्रह का त्याग ही वास्तविक संबम है । यह वस्त्र याचन, सीवन, प्रक्षालन, शोषण, निक्षेप, प्रादान और हरण मादि कारतों से मनः संक्षोभकारी है अतः उसे संबम का विघातक कारण कैसे न माना जाय ?' वही विचार-खला उत्तरकालीन विमम्बर अम्बों में प्रतिविम्बित सील पाहुड़ (गाया 29) में नारी को श्वान् मईभ, मोगादि पापों के समक्या रखा मया है । और इन सभी को मुक्ति से कोसों दूर किया गया है। प्रबनसार कोष प्रक्षेपक पाथानों में तो इसे और स्पष्ट कर दिया गया है कि नारी भले ही सम्म ग्दर्शन से शुद्ध हो, शास्त्रों का अध्ययन किया हो, तपश्चरल रूम पारिन मे.पर सहमा की संपूर्ण निर्जरा नहीं कर सकती। इन .उत्तरकालीन भाषामों 1. प्रमेयकमल मातंग, पृ. 330 2. 'मोबाईसा सेवाहरपट दिसम्म" । गीतकम, AL1972 3. प्रमेय कानमाड, पृ. 331-32 पर उदन्त श्लोक
SR No.010109
Book TitleJain Sanskrutik Chetna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpalata Jain
PublisherSanmati Vidyapith Nagpur
Publication Year1984
Total Pages137
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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