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________________ लिखा है कि इसके समान मनुष्य का दूसरा शत्रु नहीं है इसलिए इसे नारी कहते है।। इसी तरह पुरुष का वध करने वाली होने से वधू, दोषों की सत्यादिका होने से स्वी, प्रमाद उत्पन्न करने वाली होने से प्रमदा तथा पुरुषों पर दोषारोपण करने वाली होने से महिला कहा गया है । इन प्रयों के पीछे चिंतकों की यह भूमिका रही है कि नारी के कारण पुरुष वर्ग अनेक दोषों की भोर माकर्षित होता है इसलिए वह हेय है, निंदनीय है । मनोवैज्ञानिक दृष्टि से इस पर विचार किया जाये तो यही कहा जा सकता है कि अपराधी पाना अपराध किमी दूसरे पर थोपकर स्वयं मुक्त अथवा निर्दोष होना चाहता है। नारी को दुर्यस्था का एक और कारण रहा है कि उत्तर वैदिक काल में उसके धार्मिक अधिकार पुरोहितों के पास पहुंच गये । फलत: उसकी धार्मिक शिक्षा समाप्तप्राय हो गई मोर वह अपनयन संस्कार से वंचित होकर शूद्रवत् व्यवहार पाने लगी। 'इस तरह वह बुद्ध और महावीर के पूर्व काल में शिक्षा और धर्म के क्षेत्र से हटकर समाज में परतंत्रता का जीवन बिताने के लिए बाध्य हो गई। श्रमण संस्कृति में नारी के इस रूप ने करवट बदली और उसने महावीर के समतावादी दर्शन के प्रालोक में सामाजिक और धार्मिक क्षेत्र में पुन: प्रपना अस्तित्व प्राप्त किया । नायाधम्मकहाणो से पता चलता है कि संतान-प्राप्ति की काममा करते समय पुत्र अथवा पुत्री को समान रूप से देखा जाता था। इतना ही नहीं, विवाह करने के लिए वर पक्ष वधू पक्ष को शुल्क भी दिया करता था। यह उल्लेख पुषी के महत्व को अधिक स्पष्ट कर देता है। जैन संस्कृति लैंगिक और धार्मिक समता की पक्षधर है उसमें चाहे नारी हो या पुरुष, प्राणिमात्र अपने स्वयं के पुरुषार्थ से वीतरागी होकर मोक्ष प्राप्त कर सकता है । परन्तु इस सन्दर्भ में जन संस्कृति के दिगम्बर भौर श्वेताम्बर सम्प्रदाय स्वेताम्बर सम्प्रदाय के अनुसार स्त्री भी मुक्त हो सकती है क्योंकि पुरुष के समान उसमें भी वे सभी गुण विद्यमान हैं जिवकी मोक्ष प्राप्ति में प्रावश्यकता होती है। पर दिगम्बर परम्परा इसे स्वीकार नहीं करती। वह अपने पक्ष में निम्नक्षित तर्क प्रस्तुत करती है 1. तारिसमो पन्धि परी परस्स प्रयोति उपदे नारी । 2. कहं ग तुमं वा दारयं वा पारियं वा पवाएवासि, नाया 1.2, 40 ' 3. पो भण, देवाणुप्पिया! कि वदानि सुक्की नाया. 1. 14.110
SR No.010109
Book TitleJain Sanskrutik Chetna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpalata Jain
PublisherSanmati Vidyapith Nagpur
Publication Year1984
Total Pages137
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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