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________________ धर्मगुरु, बालचन्द्र के शिष्य, १११२६० में सम्राट के सेनापति कालिदास ने इन्हें पाश्व-मंदिर के लिए ग्राम दान किया था। [प्रमुख. १२२; शिस. iv. १९०] ४. अहंनन्दि मुनि, जो देसीगण-पुस्तकगच्छ के सागरनन्दि सिद्धान्तदेव के शिष्य थे, नरेन्द्रकीति विथ तथा उन मुनिचन्द्र भट्टारक (११५४ ई.) के गुरु थे, जो स्वयं होयसल नरसिंह प्र. (११४१-७३ ई.) के जैन महाप्रधान देवराज दि. के धर्मगुरु थे। [प्रमुख. १५०; जैशिसं. ii-३२४] 1. अहमन्दि सिद्धान्तदेव, जो मूलसंघ-देशीगण-पुस्तकगच्छ-कुन्द. कुन्दान्वय के कुलचन्द्र के शिष्य और शुल्लकपुर (कोल्हापुर) की रुपनारायण-बसति के आचार्य माधनन्दि सिद्धान्तदेव के अन्तेवासी थे, और जिन्हें ११५० ई० में शिलाहार नरेश विजयादित्य देव ने पाश्र्व जिनालय के लिए भूमि आदि का दान दिया था। [शिसं.ifi ३३४; एइ.11.२८;प्रमुख.१८२,१८५; देसाई.१२१] ६. अर्हनन्दि विद्य, जा प्राकृत शब्दानुशासन के कर्ता त्रिविक्रम (ल. १२०.ई. के गुरु थे। प्रवी.। ९५] ७. अर्हनन्दि बेट्टददेव (ल० ११वीं शती ई.), जो रक्कसय्य के धर्मगुरु के पूर्वज थे और महान तपस्वी थे। वह वर्षमान मुनि के प्रशिष्य और बालचन्द्र बनी के शिष्य थे -स्वयं उन्हें १११२ ई. में कालिदास दडनाथ ने पाश्वं-जिनालय के लिए भूमिदान दिया था। [देसाई. १८९, १९०, २४७, २५०; जैशिस. iv. १९०] ५. अहणंदि मुनीन्द्र जो बाहुबलि भ के शिष्य सकलचन्द्र भट्टारक (ममाधिमरण १२३६ ई.) के शास्त्रगुरु थे। [शिसं iv.३२७] ९. अर्हनन्दि पण्डित, दानचिन्तामणि अत्तिमम्बे के धर्मगुरु, जिन्हें उसने लोक्किगडि में भव्य जिनालय बनवाकर, १००७ ई. मे, अपने पुत्र पडेबल तेल के शासन में, उक्त मंदिर के रखरखाव आदि के लिए प्रभत दान दिया था -यह आचार्य सरस्थगणकारगच्छ के थे, चालुक्य सम्राट आहवमल्ल सत्याश्रय का राज्यकाल था। [देसाई. १४०; जैशिसं.iv ११७] १०. बहनन्दि, जो मूलसंघ-कुन्दकुन्दान्वय के क्राणूरगण-तिन्त्रिणि. गच्छ के चतुर्मुख सिद्धान्तदेव को शिष्य परम्परा मे वीरनन्दि के ऐतिहासिक व्यक्तिकोष
SR No.010105
Book TitleJain Jyoti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherGyandip Prakashan
Publication Year1988
Total Pages205
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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