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________________ मदलि- ईस्वी सन् के प्रारंभ के लगभग, दक्षिणात्य मूलसंघ के प्रधाना चार्य, भद्रबाहु श्रुतकेवलि की परम्परा में हुए। अनुभूति है कि इन्होंने ६६ ई० में वेण्यानदी के तट पर स्थित महिमा नगरी में दिगम्बर मुनियों का अखिल महासम्मेलन किया था जिसमें मूलसंघ को सर्वप्रथम मन्दि, मेन, सिंह, देव, मन आदि उपसंघों में विभाजित किया गया था। इन्हींने धुतघर आचार्य धरसेन के आह्वान पर अपने पुष्पदन्त और भूतबलि नामक दो सुयोग्य शिष्यों को उनके पास भेजा था और फलस्वरुप षट्खंडागम. सिद्धान्त के रूप में अंगपूर्वो का आंशिक उद्धार एवं पुस्तकीकरण हुआ था। [जैसो. १०६.११२; प्रमुख. ६४] महंमत- ९७२ ई. में समाधिमरण करने वाली तपस्विनी आयिका पाम्बब्वे के पुत्र राजकुमार, जिसने माता का स्मारक बनवाया -दीक्षापूर्व वह एक महारानी थी। [शिसं.ii. १५०; एक. vi. १] महंतुल्लम- संस्कृत ग्रन्थ 'वैश्यजाति' के कर्ता। महनमुनि पद्मपुराण (६७६ ई.) के कर्ता रविषेण के प्रगुरु, लक्ष्मण सेन के गुरु, दिवाकर यति के शिष्य और इन्द्रगुरु के प्रशिप्य । (पद्मपु. प्रशस्ति बहनदि- १. अर्हणन्दि मुनीन्द्र, जो यापनीयसंघ-कण्डरगण के रविचन्द्र स्वामि के शिष्य और शुभचन्द्र सिद्धान्तदेव के गुरु, अम्मोनिदेव के प्रगुरु और उन प्रभाचन्द्रदेव के प्रप्रगुरु थे, जिनके समय में, ९८० ई० में, सौन्दत्ति के जिनालय के लिए दान दिया गया था। [जैशिसं.-१६०, २०५; देसाई. ११३-११४] २. मुनि अहंनन्दि भट्टारक, बलहारिगण-अडुकलिगच्छ के सकलचन्द्र के प्रशिष्य, अध्यपोटि मुनीन्द्र (या आयिका ?) के शिष्य, और राजमहिला चामकाम्बा के गुरु, जिसने उन्हें पूर्वीचालुक्य नरेश अम्मराज द्वि. (९४५-७० ई.) से जिनमंदिरों के लिए भक्तिपूर्वक दान दिलाया था। [प्रमुख. ९५; जैगिसं. ii. १४४; देसाई. २०] ३. अर्हनन्दि आचार्य या अहणदिबेट्टददेव, कल्याणी के चालुक्य सम्राट विक्रमादित्य षष्ठ रैलोक्यमल्ल (१०७६-११२८ ई.) के ऐतिहासिक व्यक्तिकोष
SR No.010105
Book TitleJain Jyoti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherGyandip Prakashan
Publication Year1988
Total Pages205
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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