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________________ १२. अनन्तवीर्य, जिनका उल्लेख उसी पढावनी में न. ४८ पर प्रद्युम्नकाव्यकर्ता महासेन (ल. ९९६-१०.९ई.) के पशिष्य, नरसेन के शिष्य, और राजभद्र के गुरु एवं वीरभद्र के प्रगुरु के रूप में हुमा है। [शोषांक-१६. पृ-२०७] १३. वह अनन्तवीर्य जिनका उल्लेख कर्णाटक के बेलारी जिले के कोगलि ग्राम में प्राप्त एक तिपिरहित प्रतिमा लेख में हमा है। [शोधांक-१६] १४. हुम्मच के, ११४७ ई. के शि. ले. में उल्लिखित, मलधारी प्रतीके कनिष्ठ सघर्मा या शिष्य और श्रीपाल विद्य के सषर्मा, महानवादी अनन्तवीर्य जो द्रविडसंघ-नंदिगण-अरुङ्गलान्वय के आचार्य थे। यह न० ६ से अभिन्न प्रतीत होते हैं, शायद न. ३ से भी। इन्हीं का उल्लेख ११५३ ई. के बेलर के शि. ले. में भी है। [शिसं. iv. २४६; जैशिसं iii. ३२६; एक. viii३७; शोषांक-१६] १५. पश्चिमी चालुक्य नरेश जयसिंह दि. जगदेकमल्ल के १०२४ ई. के एक शि. ले. में उल्लिखित गुरु परम्परा-कमलदेव-विमुक्तव्रतीन्द्र-सिवान्तदेव-अग्णिय भटारक-प्रभाचन्द्र-अनन्तवीर्य में अंतिम आचार्य, जिनके विषय में कहा गया है कि वह उद्भट विद्वान थे, और व्याकरण, छन्द, कोष, अलङ्कार, नाट्यशास्त्र, काव्यशास्त्र, संगीत, कामशास्त्र, गणित, ज्योतिष, निमित्तमान, स्मृति-साहित्य, राजनीति, जैनदर्शन एवं अध्यात्म में निष्णात थे। उनके शिष्य गुणकीति सिद्धान्त भट्टारक और प्रशिष्य देवकीति पंडित थे। यह परम्परा यापनीय संघ की, या मूलसंप. सूरस्थगण-चित्रकुटान्वय की प्रतीत होती है । सभव है न. १० से अभिन्न है। [देसाई १.५] १६. धारवाड़ जिले के मुगद नामक स्थान से प्राप्त १०४५ ई. के एक लि. ले. में उल्लिखित अनन्तवीर्य जो यापनीयसंघ के प्रभाचन्द्र के शिष्य निरवचकीति के प्रशिष्य. गोवर्षनदेव के शिष्य और कुमारकीति के सषर्मा थे। कुमारकीति के शिष्य दामनन्दि बोर प्रशिष्य गोवर्षनदेव विडये जिनके शिष्य दामनंदिगण्ड ऐतिहासिक व्यक्तिको
SR No.010105
Book TitleJain Jyoti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherGyandip Prakashan
Publication Year1988
Total Pages205
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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