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________________ स्वयंभू स्तोत्र टीका छन्द त्रोटक। यतिपति तुम केवलज्ञान धरे, ब्रह्मादि प्रश नहिं प्राप्त करे। निज हित रत आर्य सुधी तुमको, प्रज ज्ञानी अहं नमैं तुमको ॥८॥ AL- जीdaan (१८) अरनाथ स्तुतिः । गुरणस्तोकं सदुल्लंध्य तद्वहुत्वकथा स्तुतिः । . . . प्रानन्त्यात्ते गुरणा वक्तुमशक्यास्त्वयि सा कथम् ॥८६॥ अन्वयार्थ--[ गुणस्तोकं ] थोड़े गुणों को [ सदुल्लंध्य ] उल्लंघन करके [त. त्वकथा स्तुतिः] उनको बहुत करके कहना स्तुति है। [ते गुणा आनन्त्यात् वक्तु अशक्याः] आपके गुण ही अनन्त हैं, इसलिये कहने की सामर्थ नहीं है त्वयि सा कथं ] तब आपकी स्तुति कैसे हो सकती है ? भावार्थ--जिस किसी मैं थोड़े गुण हों तब उनकी बढ़ी के कहनां यहीं स्तुति का लक्षण है । हे अरनाथ ! आपके गुरग तो अनन्त हैं, उन्हीं को समझने की व कहने की शक्ति मुझमें नहीं है। फिर उनको बढ़ा के मैं कैसे कह सकता हूं? इसलिये मैं प्रापकी स्तुति करने के लिये असमर्थ हूं। पद्धरी छन्दै । गुण थोड़े बहुत कहें बढ़ाय, जगमें थुठि सो ही नाम पाय । तेरे अनन्तगुण किम कहाय, स्तुति तेरी कोई विधि न थाय ।। उस्थानिका---तब क्या मौन रखना चाहिये---- तथापि ते मुनीन्द्रस्य यतो नामापि कीतितम् । पुनाति पुण्यकीर्तेर्नस्ततो ब्रूयाम किञ्चन ।।७।। श्रन्धयार्थ-[ तथापि ] यद्यपि प्रापके गुणों का कथन नहीं हो सकता है तो भी
SR No.010072
Book TitleParmatma Prakash evam Bruhad Swayambhu Stotra
Original Sutra AuthorYogindudev, Samantbhadracharya
AuthorVidyakumar Sethi, Yatindrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages525
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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