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________________ meena श्री अरनाथ स्तुति [यतः] क्योंकि [ते मुनींद्रस्य पुण्यकीर्तेः] पाप मुनियों के स्वामी और पवित्र कीर्तिधारी व पवित्र दिव्यध्वनि प्रकाशक का (नाम अपि) नाम मात्र ही (कीतितं) यदि भक्ति से उच्चारण किया जाय तो ( नः ) हमको ( पुनाति ) पवित्र कर देता है (ततः) इसलिये (किञ्चन ब्र याम) कुछ कहता हूँ। मावार्थ---यहां आचार्य ने दिखलाया है कि श्री अरनाथ तीर्थङ्कर की स्तुति किसी भी तरह मुझसे नहीं हो सकती है। तो भी यह समझकर मैं भक्तिवश अवश्य कुछ कहूंगा कि श्री जिनेन्द्र का पवित्र नाम ही हमारे मन को पवित्र कर देता है । क्योंकि जिसका नाम होता है उसका नाम लेने से दिलके ऊपर उसी के गुरगों का असर पड़ता है । क्योंकि श्री अरनाथ तीर्थङ्कर परम योगीश्वर हैं, सर्वज्ञ हैं तथा पवित्रवाणी के प्रकाशक व निर्मल कीति के धारक हैं इसलिये नाम मात्र ही लेने से मेरा कल्याण तो हो ही जायगा। मेरा भाव निर्मल हो जायगा । इसलिये जो कुछ बने वैसी स्तुति करना ही चाहिये। पद्धरी छन्द। सौभी मुनीन्द्र शचि कीति धार, तेरा पवित्र शुभ नाम सार । फोर्तन से मन हम शुद्ध होय, तातें कहना कुछ शक्ति जोय ।।८।। उत्थानिको-कुछ वर्णन करते हैं. लक्ष्मीविभवसर्वस्वं मुमुक्षोश्चलाञ्छनम् । साम्राज्यं सार्वभौमं ते जरत्तृणमिवाऽभवत् ।।८।। अन्वयार्थ -( ते मुमुक्षोः ) श्राप मोक्ष के इच्छा करनेवाले के ( चक्रलांछनम् ) सुदर्शन चक्र के चिह सहित (लक्ष्मी विभवसर्वस्वं) सम्पूर्ण लक्ष्मी को विभव ( सार्वभौमं 'साम्राज्यं) जो सर्द भरतक्षेत्र का षट् खण्डमई राज्य हैं वह ( जरत् तृणम् इव ) जीर्ण सृप के समान (अभवत्) होगया । .. भावार्थ- अरनाथ ! आप क्षायिक सभ्य हण्टी थे, आपने यद्यपि कुछ कालतक चक्रवर्ती को सम्पदा भोगी-छः खण्ड पृथ्वी का एक छत्र राज्य किया; परन्तु प्रापके भीतर गाढ़ 'रुचि स्वाधीनता को ही बनी रही, इस प्रसार संसार से मुक्त होने की र ....याकांक्षा प्रापके भीतर थी। इससे ज्योंही प्रत्याख्यानावरण कपाय का उपशम होगया
SR No.010072
Book TitleParmatma Prakash evam Bruhad Swayambhu Stotra
Original Sutra AuthorYogindudev, Samantbhadracharya
AuthorVidyakumar Sethi, Yatindrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages525
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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