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________________ श्री कुन्थुनाथ स्तुति छन्द त्रोटक निज घाती कर्म विनाश किये, रत्नत्रय तेज स्ववीर्य लिये । सब प्रागम के वक्ता राजें. निर्मल नम जिम सूरज छाजें ॥। ८४ ।। उत्थानिका - ऊपर कहे हुए अर्थ का सार बताते हैं १५६ यस्मान्मुनीन्द्र ! तव लोकपितामहाद्या, विद्याविभूतिकरिणकामपि नाप्नुवन्ति । तस्माद्भवन्तमजमप्रतिमेयमार्याः स्तुत्यं स्तुवन्ति सुधियः स्वहितैकतानाः ॥ ८५ -- न्वयार्थ – [ मुनीन्द्र ] हे यतिश्रेष्ठ ! [ यस्मात् ] क्योंकि [ लोकपितामहाद्याः ] जगत के माने हुए ब्रह्मा, ईश्वर, कपिल, बुद्ध आदि [ तव विद्याविभूतिकरिणकाम् ग्रपि ] प्रापकी केवलज्ञान विभूति के अश मात्र को भी [ न प्राप्नुवन्ति ] नहीं प्राप्त करते हैं [ तस्मात् ] इसीलिये [ स्वहितैकतानाः ] अपने प्रात्महित में लगे हुए (सुधियः) बुद्धिमान् ( श्रार्याः ) गरणधरादि साबु ( भवन्तम् ) आपके ( जम्) जन्म मरण रहित अविनाशी, ( प्रतिमेयम् ) और अनन्त केबलज्ञान का धारी ( स्तुत्यं ) तथा स्तुति करने के योग्य मानकर ( स्तुवन्ति ) आपकी ही स्तुति करते हैं । भावार्थ - यहां यह बताया है कि बुद्धिमान प्रात्महितैषी गणधरादि साधु श्रापकी तुति करते हैं क्योंकि आपमें वह योग्यता है जो लौकिक मानवों से विलक्षण पद को पहुंच गया हो वही नमन करने योग्य होता है । प्रापमें सर्वज्ञपना है, वीतरागपना है, सच्चे श्रागमका वक्ता है । आप ऐसे पद को पहुंच गए हैं कि फिर कभी श्रापका नाश नहीं होगा । जगत के लोग किसी कर्ता धर्ता ईश्वर को ब्रह्मा व कपिल को व बुद्ध प्रादि को पूजते हैं । परन्तु हम जब उनके कहे हुए ज्ञान का श्रापसे मिलान करते हैं तो ऐसा झलकता है कि - हे सुनीन्द्र ! श्रापके निर्मल और स्पष्ट ज्ञान का अंश मात्र भी उनके पास नहीं है । जो निर्दोष होगा व सर्वज्ञ होगा वही पूजने योग्य हो सकता है । आपमें रागदि कोई दोष नहीं है और श्राप त्रिकालज्ञ हैं । प्रापके सामने और कौन स्तुति करने योग्य हो सकता है ? प्राप्तस्वरूप में कहा है संसारो मोहनीयस्तु प्रोच्यतेऽत्र मनीषिभिः । ससारिभ्यः परो ह्यात्मा परमात्मेति भाषितः ॥८॥ भावार्थ- - बुद्धिमानों ने मोहनीय को ही संसार कहा है इसलिये मोह प्रसित संसारी प्रारियों से जो परे हैं वही श्रात्मा परमात्मा कहा गया है । Ay ay
SR No.010072
Book TitleParmatma Prakash evam Bruhad Swayambhu Stotra
Original Sutra AuthorYogindudev, Samantbhadracharya
AuthorVidyakumar Sethi, Yatindrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages525
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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