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________________ १४४ स्वयंभू स्तोत्र टीका जाते हैं। जिधर जाने की नित्यप्रति आदत हो उधर बिना चाहे भी गमन हो जाता है। रात्रि दिन अनगिनती शरीर की क्रियायें हमारी बिना इच्छा के हो जाती हैं। इसी तरह पुद्गल की शक्तिसे अनेक क्रियायें बिनाकेवली भगवानके होजाती हैं। सर्वज्ञके भीतर त्रिकाल व त्रिलोक का ज्ञान है, इसलिए अज्ञानपूर्वक कोई क्रिया नहीं होती। वे सब जानते हैं क्या होरहा है, परन्तु उन क्रियाओं के करने की पहले इच्छा करें, फिर क्रिया हो,यह क्रम अनतबल धारी केवली में आवश्यक नहीं है । हम अल्पज्ञानी अल्पबली हैं, हमारे विचार में तीर्थङ्कर को महिमा नहीं आ सकती है। तो भी तीर्थङ्कर की प्रवृत्ति कर्मों के उदय होने के कारण असम्भव नहीं है, यह पूर्णपने निश्चित है। तीर्थकर का स्वरूप अनगारधर्मामृत में पं० आशाधर भी कहते हैं यो जन्मान्तरतत्त्वभावनभुवा बोधेन बुद्ध्वा स्वयं । श्रेयो मार्गमपास्य धातिदुरितं साक्षादशेषं विदन् । सद्यस्तीर्थकरत्वपवित्रमगिरा कामं निरीहो जगत् । तत्त्वं शास्ति शिवाथिभिः स भगवानाप्तोत्तमः सेव्यताम् ।।१५।२ भावार्थ-जिसने पूर्वजन्म के प्रात्मतत्त्व की भावना के द्वारा होने वाले ज्ञान से स्वयं मोक्षमार्ग को जाना और ध्यान के बल से सर्व घातिया कर्मों का नाश करके साक्षात् सर्व पदार्थों को जान लिया और तीर्थंकर नाम विशेष पुण्यकर्म के उदय से प्रगट हुए अपनी वारणी के द्वारा बिना इच्छा के ही जगत को सच्चे तत्त्व का उपदेश किया वही भगवान सर्व से श्रेष्ठ प्राप्त परमात्मा है । मोक्षार्थियों को उनही की सेवा करनी उचित है । सग्विणी छन्द आपकी मन वचन कायकी सब क्रिया। होय इच्छा बिना कर्मकृत यह क्रिया। है मुने ज्ञान बिन हैं न तेरी क्रिया । चित नहीं करसकै भान अद्भुत किया ।। ७४ ।। उत्थानिका-जैसे दूसरे मनुष्यों की काय आदि की प्रवृत्ति इच्छा पूर्वक देखी जाती है वैसे भगवान के भी होनी चाहिये,ऐसा कहने वाले का समाधान करते हैं मानुषी प्रकृतिमभ्यतीतवान् देवतास्वपि च देवता यतः । तेन नाथ परमाऽसि देवता श्रेयसे जिनवृष ! प्रसीद नः ॥ ७५ ॥
SR No.010072
Book TitleParmatma Prakash evam Bruhad Swayambhu Stotra
Original Sutra AuthorYogindudev, Samantbhadracharya
AuthorVidyakumar Sethi, Yatindrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages525
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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