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________________ श्री धर्मनाथ स्तुति nirartमनसां प्रवृत्तयो नाग्भवंस्तव मुनेश्चिकीर्षया । नासमीक्ष्य भवतः प्रवृत्तयो धीर तावकमचिन्त्यमीहितम् ।। ७४ ।। १४३ श्रन्वयार्थ — (तव मुनेः) आप प्रत्यक्ष ज्ञानी हैं । आपकी ( कायवाक्य मनसः प्रवृत्तयः ) मन, वचन, काय को प्रवृत्तियां ( चिकीर्षया ) श्रापकी करने की इच्छापूर्वक ( न प्रभवन् ) नहीं हुई ( न ) ( भवतः प्रवृत्तयः ) आपकी चेष्टायें ( असमीक्ष्य ) अंज्ञान पूर्वक हुई । ( धीर ) हे धीर ! [ तावकम् ईहितम् ग्रचिन्तम् ] आपकी क्रिया का चितवन नहीं हो सकता, आपका कार्य अचिन्त्य है । भावार्थ - तीर्थङ्कर भगवान के मोहका सर्वथा नाश होगया है इसलिए उनके ग्रात्मा रूपी समुद्र को रागद्व ेष की कल्लोले प्राघात नहीं पहुंचा सकती है, किंचित् इच्छा नहीं हो सकती है ! तो भी अरहन्त अवस्था में जो मन वचन काय के योगों का हलन चलन होता है वह कर्मों के उदय का कारण है । आपके स्वयं तीर्थङ्कर नाम कर्म का विहायोगति नाम कर्म का, स्वर नाम कर्म का, शरीर नाम कर्म का उदय है; इन कर्मों को अन्तरङ्ग प्रेरणा से और बाहर में भव्यजीवों के पुण्य के उदय की प्रेरणा से आपका विहार होता है व प्राका उपदेश होता है । तथा द्रव्य मन का परिणमन होता है । भाव मन जो सकल्प विकल्प रूप है वह आपके पास बिलकुल नहीं है, क्योंकि मतिज्ञान व श्रुतज्ञान का भी प्रभाव है, मन द्वारा विचार करने की जरूरत नहीं है । जब वहां केवल केवलज्ञान सूर्य का प्रकाश है तब अल्पज्ञान की कोई जरूरत नहीं है । हरएक कार्य के होने में या तो कर्मों का उदय मात्र कारण होता है या उसके साथ पुरुष की इच्छा भी कारण होती है । आपके इच्छा होना तो असम्भव है । परन्तु चार ग्रघातीय कर्मों का उदय विद्यमान है जो बराबर अपना काम कर रहे हैं । नाम कर्म के कारण से ही मन, वचन काय के योगों का हलन चलन होता है । प्रायु कर्म से शरीर में स्थिति है । गोत्रकर्मसे उच्चपना प्रगट है | वेदनीय कर्म से समवसरणादि विभूति का संयोग है । प्रायः देखा जाता है कि हरएक मानव में मन वचन काय की प्रवृत्तियें बिना इच्छा के भी हो जाती हैं। एक मानव मनमें संकल्प करके बैठा है कि मैं सामायिक करूंगा तथापि बिना चाहे अनेक विचार मन में उठ जाते हैं । रात्रि को सोते २ वचन निकल जाते हैं। बड़बड़ाना हो जाता तथा विना चाहे श्वास चला करता है । शरीर में भोजन का पाचन होता है रस, रुधिर, मांस, वीर्य प्रादि बनता है। इन्द्रियों में पुष्टता हो जाती या बिना चाहे रोगादिक हो जाते हैं । केश काले से सफेद हो
SR No.010072
Book TitleParmatma Prakash evam Bruhad Swayambhu Stotra
Original Sutra AuthorYogindudev, Samantbhadracharya
AuthorVidyakumar Sethi, Yatindrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages525
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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