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________________ श्री धर्मनाथ स्तुि १४५ श्रन्वयार्थ - [ यतः ] क्योंकि आपने [ मानुषीं प्रकृति ] साधारण मनुष्य के स्वभाव को [ अभ्यतीतवान् ] उल्लंघन कर लिया है। तथा [ देवतासु अपि ] जगत के सब देवों में भी प्राप पूज्य हैं [ नाथ ] हे नाथ ! ( तेज ) इस कारण से प्राप (परम देवता प्रसि) सर्वोत्कृष्ट देव हैं ( जिनवृष ) हे धर्मनाथ जिनेन्द्र ! ( श्रेयसे ) मोक्ष के लिये ( नः प्रसीद ) हम लोगों पर प्रसन्न हूजिये । भावार्थ - यहां यह बताया है कि हे श्री धर्मनाथ भगवान ! प्राप साधारण मनुष्य नहीं रहे, आप तो परमात्म पद में होगए, आपकी क्रिया साधारण मानवों से नहीं मिल सकती है । साधारण मानव मति, श्रुतज्ञानी व अल्पबली, इन्द्रिय द्वारा काम करने वाले, दिनरात इच्छावान् कषाय ग्रसित होते हैं । प्राप पूर्ण केवलज्ञानी हो, अनन्तबली हो, प्रतीन्द्रिय ज्ञान से काम करने वाले हो, दिनरात इच्छा रहित हो, कषाय को चूर्ण करके परम वीतराग हो । आप तो योगियों के भी ईश्वर हो । बड़े-बड़े योग। प्रात्मध्यान के बल से अनेक ऋद्धि सिद्धि प्राप्त कर लेते हैं । श्रात्मध्यान की ऐसी ही कोई पूर्व महिमा है। तब आपमें यदि इच्छा बिना आपके योग द्वारा कुछ क्रियायें हों व श्राप साधारण मानवों के समान बिना भोजनपान किये व निद्रा लिए सदा ही जागृत रहें व स्वरूप मस्त रहे तो इसमें कोई अर्थ नहीं है । श्रापके लाभांतराय कर्मका नाश होगया है इसलिए आपके शरीर को पुष्टिकारक प्राहारक वर्गरणा का नित्य आपके शरीर में प्रवेश होती है जिससे आपके शरीर की स्थिति रहती है । आप प्रनन्त बली हैं, आपको यह निर्बलता कभी मालूम नहीं हो सकती है कि हम भूखे हैं । प्राप स्वरूप में सन्मुख होरहे हैं इसलिये आप ग्रास चलाकर खाने का उपयोग ही नहीं कर सकते हैं । न भिक्षावृत्ति करके साधु के समान गोचरी को जा सकते हैं । इन हीन क्रियाओं की आपके लिए कोई जरूरत नहीं है । आप जब वारहवें गुणस्थान में थे तब ही शरीर के धातु उपधातु बदलकर शुद्ध स्फटिक समान व कर्पूर के समान होगए व श्रापका शरीर इतना हलका होगया कि सदा ही आकाश में अन्तरीक्ष रहता है । उसको आधार की जरूरत नहीं है । आपको महिमा योगियों से भी प्रगाध है । जगत में चार प्रकार के देव हैं वे सबही आपको पूजते हैं । प्राप तो मनुष्यों की बात वया देवताओं से भी अधिक हैं। आपमें देवताओं के समान भी कभी भूख प्यास नहीं लगती है, न आपके अमृत झरने से तृप्ति होती है । फिर सब देवता चौथे अविरत सम्यक्त्व गुणस्थान से अधिक नहीं पा सकते, आप तो तेरहवें सयोग केवली जिन गुरणस्थान में है। देवताओं का मरण होता है, श्राप तो जन्म मरण को जीत चुके हैं, आप तो मोक्षरूप हैं । इसलिए प कण्ठ में
SR No.010072
Book TitleParmatma Prakash evam Bruhad Swayambhu Stotra
Original Sutra AuthorYogindudev, Samantbhadracharya
AuthorVidyakumar Sethi, Yatindrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages525
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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