SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 416
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १०० स्वयंभू स्तोत्र रीका प्रापका उपदेश ऐसा बाधा रहित हुआ कि किसी प्रमाण में व युक्ति में शक्ति नहीं है कि उसका खंडन कर सके व उसमें दोष निकाल सके । क्योंकि आप तो सर्वज्ञ वीतराग हैं । जैसे जगत में वह सूर्य जिसके ऊपर से मेघों का प्रावरण हट जाता है एक अकेला ही बड़े ही तेज को प्रकाश करता हुआ सर्व प्रजा को ऐसा मार्ग बताता है कि जिससे बुद्धिमान लोग अपना काम सुगमता से करते हैं। आंख वाले प्राणी मार्ग देखकर चलते फिरते हैं। खाई खंदक कूए बावड़ी में गिरते नहीं हैं। सर्व जगत का बड़ा हित होता है वैसे ही अापके जब चार घातिया कर्मों का आवरण हट गया तब आप बाहर में कोटि सूर्य से भी अधिक तेज को धरे हुए व अंतरंग में अत्यन्त निर्मल व अपूर्व केवलज्ञान को दीप्ति को धारण करते हुए बिना किसी सहायता के स्वयं प्रत्यक्ष सब कुछ जानते हए तथा दूसरों को अपने दिव्य वचनों से मोक्ष मार्ग बताकर उनका परम हित करते हुए जैसे सूर्य के प्रकाश विना मानव अधकार में कष्ट पाते हैं वैसे आपके यथार्थ मोक्षमार्ग के उपदेश विना जगत के प्राणी कुमार्ग से बचकर सुमार्ग पर नहीं चल सकते हैं और संसार __ में भ्रमण कर दुःख उठाते हैं। धन्य हैं प्रभु ! आप ही सच्चे श्रेय या श्रेयांश जिन हैं । प्राप्तस्वरूप में अरहंत की स्तुति में कहा है शिवं परमकल्याणं निर्वाणं शान्तमक्षयं । प्राप्तं मुक्तिपद येन स शिवः परिकीर्तितः ॥२४॥ सुप्रभातं सदा यस्या केवलज्ञानरश्मिना । लोकालोकप्रकाशन सोऽस्तु भव्यदिवाकरः ।। ४२॥ भावार्थ-अरहंत भगवान ही सच्चे शिव हैं, क्योंकि उन्होंने अविनाशी व शांति. लय व परम कल्याण रूप व सुखमई निर्वाणरूप मुक्ति पद को प्राप्त कर लिया है तथा वे ही सच्चे सूर्य हैं जिनके लोक अलोक को प्रकाश करने वाले केवलज्ञान की किरणों के फैलने से अज्ञान का अन्धकार मिट गया और सम्यग्ज्ञान का प्रभात हो गया । छन्द मालिनी। जिनवर हितकारी वाक्य निधिधारी । जगत जन सुहितकर मोक्षमाग प्रनारी। जिम मेघ रहित हो सूर्य एकी प्रकागे । तिम तुम या जगमें एक अद्भुत प्राय ।। उत्थानिका~भगवान ने कसा उपदेश दिया सो कहते हैंविधिविषक्तप्रतिषेधरूपः, प्रमाणमत्रान्यतरत्प्रधानम् । गुणोपरी मुख्यनियामहेतु, नयः स दृष्टान्तसमर्थनस्ते ॥५२॥
SR No.010072
Book TitleParmatma Prakash evam Bruhad Swayambhu Stotra
Original Sutra AuthorYogindudev, Samantbhadracharya
AuthorVidyakumar Sethi, Yatindrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages525
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy