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________________ श्री श्रेयांश जिन स्तुति १०१ श्रन्वयार्थ - (ते ) आपके दर्शन में ( विधि : ) स्व स्वरूपादि चतुष्टय की अपेक्षा प्रतिपना (विषप्रतिषेधरूपः ) पर स्वरूपादि चतुष्टय की अपेक्षा नास्तिपना धर्म के साथ जुड़ा हुा है ऐसा जो पदार्थों का अस्ति नास्तिरूप एक काल में झलकने वाला ज्ञान है. सो ( प्रमाण ) प्रमारग का विषय होने से प्रमारण कहलाता है । [ ग्रत्र ] इन दोनों अस्तित्व वनास्तित्व धर्मों में से [ अन्यतरत् ] किसी एक को वक्ता के अभिप्राय से ( प्रधानं ) मुख्य करने वाला ( अपर: गुरणः ) और दूसरे को गौरा या प्रप्रधान करने वाला ( नयः ) एक देश व एक ही स्वभाव को कहने वाला नय है । वह नय ( मुख्य नियामहेतुः ) इन अस्तित्व व नास्तित्व दोनों धर्मों से किसी एक को मुख्य करके बताने के नियम का साधक है । ( सः दृष्टांत - समर्थनः ) और वह तय दृष्टांत का समर्थन करने वाला होता है अर्थात् जो धर्म वक्ता दूसरे को दिखाना चाहता है उसका स्वरूप ठीक २ दर्शानेवाला है । या जो दृष्टांत दिया जाय उसे प्राप्त करता है । भावार्थ-यहां यह बताया है कि आपका धर्मोपदेश व तत्त्वोपदेश प्रमाण और नय के द्वारा जगत के जीवों से समझा जाता है । वस्तु प्रस्ति नास्तिरूप है या विधि निषेधरूप है । कोई पदार्थ कभी भी इन दोनों धर्मों से शून्य नहीं हो सकता है। जहां अपने द्रव्य क्षेत्र काल भाव से वस्तु का अस्तित्व है वहां पर के द्रव्य क्षेत्र काल भाव से पर वस्तु का नास्तित्व है । इन दोनों धर्मों को एक साथ बताने वाला प्रमाण है। यद्यपि दोनों धर्म एक साथ हो वस्तु में हैं परन्तु शिष्य को एक एक धर्म सुगमता से समझाने के लिये जो मार्ग शब्द द्वारा ग्रहरण किया जाता है वह नय है । नय का यह स्वरूप है कि वह एक धर्म को मुख्यता से बताता है तब दूसरे को गौर कर देता है। सुननेवाले शिष्य को भले प्रकार भासित हो जावे इसलिये जब वह वक्ता अलग अलग करके एक एक धर्म को समझाता है - वह कहेगा " स्यात् श्रस्ति" तब समझने वाला समझ जायगा कि किसी अपेक्षा से प्रतिपना वस्तु में है, अर्थात् स्वद्रव्य क्षेत्र काल भाव की प्रपेक्षा अस्तिपना है । यहां स्यात् यह बताता है कि इसमें और भी धर्म हैं। जब वक्ता फिर कहता है कि 'स्यात् नास्ति' तब शिष्य समझता है कि वस्तु पर-द्रव्य से काल भाव की अपेक्षा नास्तिरूप है । 'स्यात्' शब्द बताता है कि सर्वथा नास्तिरूप नहीं है उसमें अस्तिपना भी है । शिष्य को दृढ़ करने के लिये फिर वक्ता कहता है "स्यात् श्रस्ति नास्ति । " किसी अपेक्षा से इसमें दोनों ही धर्म हैं, अस्ति भी है, नास्ति भी है । हैं तो दोनों धर्म एक काल में परन्तु शब्दों में शक्ति नहीं है इसलिये वक्ता कहता है " स्यात् प्रवक्तव्यं" किसी अपेक्षासे
SR No.010072
Book TitleParmatma Prakash evam Bruhad Swayambhu Stotra
Original Sutra AuthorYogindudev, Samantbhadracharya
AuthorVidyakumar Sethi, Yatindrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages525
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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