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________________ ५३ श्री पद्मप्रभ जिन स्तुति यहां पर श्री समंतभद्र स्वामी कहते हैं कि हे सुमतिनाथ । श्रापका यह सिद्धान्त पक्का है, अकाट्य है, मानवीय है । इसलिये हम आपको यथार्थ वक्ता मानकर प्रापको ही स्तुति करते हैं और यह भावना करते हैं कि जैसा श्रापका नाम है वैसा ही गुरण हमको प्रदान कीजिये अर्थात् आपकी भक्ति व स्तुति करने से मेरे अन्दर जो ज्ञान का आवरण है वह दूर हो और मेरा ज्ञान बढ़ता चला जावे । अन्त में मैं आपके ही समान केवलज्ञानी हो जाऊं । त्रोटक छन्द विधि वा निषेध सापेक्ष सही गुण मुख्य कथन स्याद्वाद यही । इम तत्त्व प्रदर्शी ग्राप सुमति, श्रुति नाथ करू हो श्रेष्ठ सुमति ॥ २५ ॥ (६) श्री पद्मप्रभ जिन स्तुतिः पद्मप्रभः पद्मपलाश लेश्यः पद्मालयालिङ्गितचारुमूर्तिः । भौ भवान् भव्यपयोरुहाणां, पद्माकराणामिन पद्मबन्धुः ॥ २६ ॥ अन्वयार्थ - ( पद्मप्रभः) कमल की प्रभा के समान प्रभाधारी ऐसे छठे तीर्थंकर श्री पद्मप्रभ देव ( पद्मपलाशलेश्यः ) सफेद कमल के पत्र संमान शुक्ल लेश्या के धारी हैं । ( पद्मालयालिंगित चारुमूर्तिः ) लक्ष्मी ने जिनकी सुन्दर मूर्ति को आलिंगन कर लिया है । आत्मा को तो अनन्त ज्ञानादि चतुष्टयं रूपी लक्ष्मी व वीतरागतारूपी लक्ष्मी प्रालिंगन कर रही है, शरीर को पसेव रहितपना, महान रूपपना, १००८ लक्षणपना आदि लक्ष्मी प्रालि - गर्न कर रही है ऐसे ( भवान् ) ग्राप पद्मप्रभ भगवान ( प्रभाकरारगां ) कमलों के विकास के लिये ( पद्मबन्धुः इव ) सूर्य के समान ( भव्यपयोरुहाणां ) भव्यरूपी कमलों के प्रसन्न करने के लिये (बभौ ) शोभते हुए । भावार्थ - यहां पर श्राचार्य ने श्री अरहन्त भगवान की उस समय की शोभा बताई है जब वे तेरहवें सयोग गुणस्थान में समवसरण सहित अपनी दिव्य गंधकुटी में शोभायमान होते हैं । भगवान का शरीर लाल कमल के समान लाल रंग का परस शोभनीक
SR No.010072
Book TitleParmatma Prakash evam Bruhad Swayambhu Stotra
Original Sutra AuthorYogindudev, Samantbhadracharya
AuthorVidyakumar Sethi, Yatindrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages525
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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