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________________ ५२ स्वयंभू स्तोत्र टीका नित्य है । [ मुख्यगुणव्यवस्था ] एक को मुख्य करना दूसरे को गौर करना ऐसी व्यवस्था [ विवक्षया ] कहने वाले की इच्छा के अनुसार चलती है । जो जिस समय नित्यपना बताना चाहता है वह नित्य को मुख्य करके कहता है तब प्रनित्यपना गौरग हो जाता है । तथा जो जब प्रनित्यपना समझाना चाहता है तब नित्यपना गौण हो जाता है । [ इति ] इस प्रकार [तव सुमतेः ] हे सुमतिनाथ भगवान ! प्रापकी [ अयं प्रणीतिः ] यह तत्व के प्रतिपादन करने की शैली है । (नाथ) हे नाथ ! ( स्तुवतः मतिप्रवेकः श्रस्तु ) मैं गुण को इसीलिये स्तुति करता हूं कि मेरी बुद्धि की उत्कृष्टता होवे । मैं ऐसी भावना करता हूँ । भावार्थ - इस श्लोक में बता दिया है कि स्याद्वाद से वस्तु का स्वरूप यथार्थ बताया जाता है । वस्तु में अस्ति नास्ति, भाव अभाव, नित्य अनित्य ऐसे विरोधी स्वभाव तो पाए ही जाते हैं; परन्तु वे सब भिन्न २ अपेक्षा से होने पर कोई विरोध नहीं रहता है । जैसे किसी मानव को पिता व पुत्र दोनों ही माना जावे, ये दोनों विरोधी सम्बन्ध उस मानव में भिन्न २ अपेक्षा से हैं । वह अपने पुत्र की अपेक्षा पिता है व अपने पिता की अपेक्षा पुत्र है, कोई विरोध की बात नहीं है । इसी तरह वस्तु द्रव्य अपेक्षा सदा रहती है इससे प्रतिरूप, भावरूप व नित्य है, वही पर्याय पलटने की अपेक्षा एकसी नहीं रहती है । इससे नास्तिरूप, प्रभावरूप व अनित्य है । दूसरे को दोनों स्वभाव समझने का मार्ग यही है जैसा कि श्री उमास्वामी महाराज ने तत्वार्थ सूत्र में कहा है- "पितानर्पित सिद्ध ेः" कि जिसको कहना हो उसको मुख्य किया जाय व जिसको न कहना हो उसको गौर कर दिया जाय, यही स्याद्वाद है । स्यात् अर्थात् कथंचित् वाद अर्थात् कहना। वस्तु स्यात् भावरूप है, वस्तु स्यात् प्रभावरूप है । प्रर्थात् वस्तु कथंचित् किसी अपेक्षा से द्रव्याथिक नय से भाव रूप है वही कयंचित किसी अपेक्षा से, पर्याय के पलटने की अपेक्षा से प्रभावरूप है । श्री जिनेन्द्र भगवान की वारणी इसी तरह नेकांत मत का प्रकाश करती हुई बाधा रहित पदार्थ को यथार्थ बता देती है । जैसा 'स्वामी ने श्राप्तमीमांसा में कहा है * भीतर प्रयोग वाक्येष्वनेकांतद्योती गम्यम्प्रति विशेषणम् । स्यान्निपातोऽयं योगित्वात्तव केवलिनामपि ॥ १०३ ॥ भावार्थ - यह स्यात् एक अव्यय है । यह अव्यय शब्द वाक्यों के करने से अनेक स्वभाव वाले पदार्थ का प्रकाश करता है। साथ ही किसी एक की विशेषता भी करता है। उसके अर्थ की यही घटना है कि ताते हुए भी एक को मुख्य करता है, अन्य को गौर करता है । हे भगवन् ! प्रापका यह मत है वैसा ही सर्व केवली व श्रुतकेवलियों का मत है । मुख्य स्वभाव शवों का होना
SR No.010072
Book TitleParmatma Prakash evam Bruhad Swayambhu Stotra
Original Sutra AuthorYogindudev, Samantbhadracharya
AuthorVidyakumar Sethi, Yatindrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages525
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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