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________________ स्वयंभू स्तोत्र टीका था तथापि प्रात्मा में लालपना न था क्योंकि कषायों का सर्वनाश हो चुका था इसलिये परम वीतरागता प्रगट हो चुकी थी । मात्र शुक्ललेश्या थी, क्योंकि अभी तक दिव्यध्वनि व विहार होता था इसमें योगों की प्रवृत्ति थी। इस लेश्या के होते हुए अनन्त पुण्यरूपी शक्ति को लिये हुए साला वेदनीय कर्म का ही प्रास्रव होता है, जिनकी ध्यानमई मूर्ति अन्तरग बहिरंग लक्ष्मी से शोभायमान थी । अन्तरंग में तो प्रात्मानुभूति थी, अनन्त ज्ञान दर्शन सुख बीर्यमई अनन्त चतुष्टय की लक्ष्मी थी। परम बीतरागता व समता ने बड़ी ही शोभा विस्तार कर रक्खी थी। उसी अन्तरंग लक्ष्मी के प्रभाव से बाहर का शरीर भी परमौदारिक कोटि सूर्य के समान १००८ लक्षण युक्त पसीला व मल प्रादि दोष से रहित परम. दीप्ति से जाज्वल्यमान था। वारह सभा में अनेक भव्य जीव कमलवनों के समान बैठे हुए प्रफुल्लित हो रहे थे। भगवान का परम प्रतापशाली व परम शान्त मुख देखकर मन प्रानन्द से गद्गद हो रहा था। समवसरण स्थित प्राणियों के मन में कोई वैरभाव शोक, खेद, चिन्ता व दुःख नहीं रहता है। वे समवशरण में प्रवेश करते ही परमानन्द में डूब जाते हैं । और जब भगवान की शान्त मुद्रा का दर्शन करते हैं व दिव्यवाणी सुनते हैं तब तो उनका मन और भी परम सुखरूपी अमृत से भर जाता है। जैसे यहां सूर्य का उदय होता है वहां कमलों के वन फूल जाते हैं इसी तरह उनकी बारह समानों में बैठे हुए चार प्रकार के देव व देवियां, मुनि प्रायिका मानव व पशु सर्व ही भव्य जीव धर्म के पिपासु परम प्रफुल्लित हो रहे थे। इस तरह भगवान को अपूर्व शोभा हो रही थी। वास्तव में आत्मा के गुणों की अपूर्व महिमा है। यह सब प्रात्मध्यान का ही प्रताप था जिससे यह अपूर्व पुण्य उदय में आरहा है। भगवान के तो किसी प्रकार की इच्छा नहीं है । परन्तु पुण्य कर्म स्वयं फलित होकर यह शोभा प्रकाश कर रहा है । पात्रकेशरी स्तोत्र में भी अरहन्त के शरीर की शोभा इस तरह बताई है प्रशांतकरणं वपुविगतभूपणं चाऽपि ते । समस्तगनचित्तनेत्रपरमोत्सवत्वं गतम् ॥ विनाऽऽयधपरिग्रहाज्निन ! जिशास्त्वया दुर्जयाः । कपायरिपवो परंन तु गृहीतशस्त्रैरपि ॥१७॥ भावार्थ-हे प्रभु ! सापके शरीर पर कोई प्राभूषण नहीं है तथापि अापके भीतर परम शान्ति झलक रही है, सवं इन्द्रियों की शोभा शान्तरूप है व दूसरों को भी शान्त करने वाली है। आपकी वीतराग छवि को देखकर सर्व जनों को चित्त में परम प्रमोद हो रहा है। प्रापने बिना किसी शस्त्र के हे जिन ! अत्यन्त दुर्जय कषायरूपी शत्रुत्रों को सर्वथा जीत लिया है जिनको बड़े २ शस्त्रधारी योद्धा भी नहीं जीत सकते ।
SR No.010072
Book TitleParmatma Prakash evam Bruhad Swayambhu Stotra
Original Sutra AuthorYogindudev, Samantbhadracharya
AuthorVidyakumar Sethi, Yatindrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages525
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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