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________________ श्री सुमति तीर्थकर स्तुति नहीं बन सकेगा । इससे यही मत ठीक है कि वस्तु भेद व अभेद उभय स्वरूप एक कालमें हैं । यही हे सुमतिनाथ ! आपका यथार्थ मत है । भावार्थ-इस श्लोक में प्राचार्य ने बताया है कि हर एक जीव अजीव एक व अनेक रूप है। दोनों ही स्वभाव उसमें हर एक समय में पाए जाते हैं । द्रव्य की अपेक्षा एकरूप है पर्याय की अपेक्षा अनेक रूप है। द्रब्य पर्याय बरावर साथ पाई जाती हैं, जैसे मिट्टी द्रव्य है उसका घड़ा, प्याला, मटकना आदि अवस्थाएं बनी। हन अवस्थानों को अपेक्षा मिट्टी अनेक रूप है परन्तु इन सब में वही मिट्टी है इसलिये मिट्टी की अपेक्षा एक . रूप ही है । कोई द्रव्य बिना परिणाम के नहीं रह सकता है । परिणाम समय २ होते रहते हैं कभी सदृश परिणाम होते हैं कभी विसदृश होते हैं, तथापि जिस द्रव्य में परिणाम होते हैं वह द्रव्य बना रहता है । यह जीव निगोद में था वही जीव एकेंद्रिय, द्वोन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पशु होकर, मानव हुआ और मानव से मोक्षगति में चला गया। यहां भिन्न २ पर्यायों की अपेक्षा जीव अनेक रूप है तथापि द्रव्य वही है, जीव वही है, इसकी अपेक्षा वह जीव एक रूप भी है। सं० टीकाकारने बताया है कि बौद्धों ने तो अाजकल यह मान रक्खा है कि तत्त्व पर्याय मात्र है उसको द्रव्य कहना या वही कहना जो पहले था यह मात्र अनादि विद्या के कारण कल्पना है, इसलिये भेदज्ञान व अनेकता ज्ञान ठीक नहीं है । तथा सांख्यों का ऐसा मानना है कि जीवादि द्रव्य ही वास्तविक है उसमें सुख दुःख प्रादि की पर्याय वास्तविक नहीं है, उपाधि मात्र ही है। अर्थात् बौद्ध तो एकपने को उपचार व सांख्य अनेकपने को उपचार रूप मानते हैं। इस पर यह अनेकांत का कहना है ये दोनों ही पक्ष एकांत होने से ठीक नहीं है । क्योंकि उपचार वहीं होता है जहां मुख्य न होते हुए किसी प्रयोजन से मुख्य की कल्पना की जावे । जैसे कोई कोई बालक बहुत पराक्रमी है तब उसको देखकर यह कहना कि यह सिंह है। यहां बालक में सिंहपना नहीं है किंतु कोई एक गुरगकी सहशता करने के लिये सिंह की उपमा दी है। परन्तु यह उपचार बालक में वेमतलब नहीं है। इस प्रयोजन से है कि उसमें सिंह के समान साहस है। यह स्त्री चन्द्रमुखी है। स्त्री को चंद्रमुखी कहना इसी प्रयोजन से है कि उसके मुखको गोलाई व शांति चंद्रमाके समान है । अठा उपचार नहीं होसकता । यदि बौद्धमत में एकपना व सांस्य के मत में बनेकपना कोई स्व ही नहीं है-झा ही है । तब उपचार से है यह कहना भी व्यर्थ है। जब हरएक द्रव्य पर्यायों को रखता है और पर्याय द्रव्य बिना नहीं होती तव यह स्वतः मिद्ध है कि एफ द्रव्य अनेक पर्यायों को रखने
SR No.010072
Book TitleParmatma Prakash evam Bruhad Swayambhu Stotra
Original Sutra AuthorYogindudev, Samantbhadracharya
AuthorVidyakumar Sethi, Yatindrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages525
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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