SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 362
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४६ स्वयंभू स्तोत्र टीका L1MIAM से अनेक रूप है । हम यदि द्रव्य को माने, पर्याय को न माने या पर्याय को माने, द्रव्यको न माने तो दोनों ही न रहेंगे । हम यदि सुवर्ण के कंकरण पर्यायको तो मानें परन्तु कहें यह सुवर्ण नहीं है । या कंकरण कुंडल श्रादिको मात्र सुवर्ण ही कहें, कंकरण कुंडलके श्राकाररूप पर्यायको न माने तो हमारा कहना व मानना बन ही नहीं सकता है । क्योंकि जब वह सुवर्णका बना हुआ कंकरण है तब सुवर्ण पहले था वही यह सुवर्ण है ऐसा होने से सुवर्ण द्रव्य सिद्ध होजाता है । पहले कुण्डल था अब वही कंकरण है, ऐसा होने से एक ही सुवर्ण में कुण्डल व कंकरण ऐसा श्रनेकपना सिद्ध होगया इसलिये एकको न मानने से कोई भी नहीं ठहर सकता है । और जब कोई तत्व ही न रहेगा तब उसका कथन ही संभव होगा इसलिये एक व अनेक उभय रूप वस्तुको मानना यही सत्य है व ऐसा हो हे सुमतिनाथ ! आपका मत है । प्राप्तमीमांसा में भी कहा है । प्रमाणगोचरी सन्तौ मेदामेदो न संवृतिः । तावेकत्राविरुद्धौ ते गुणमुख्यविवक्षया ।। ३६ ।। भावार्थ- पदार्थ में भेद व प्रभेद कहना प्रसारण से सिद्ध है उपचार मात्र व यारोप मात्र नहीं है । एकही में बिना किसी विरोधके भेद व प्रभेद सिद्ध हैं। वर्णन करते हुए समय एकको ही कह सकते हैं इसलिये किसी को गौण व किसी को मुख्य कहना पड़ता है । त्रोटक छन्द । हे तत्व अनेक व एक वही, तत्व भेद प्रभेदहि ज्ञान सही । उपचार कहो तो सत्य नहीं, इक हो अन ना वक्तव्य नहीं ।। १२॥ उत्थानिका - जैसे जीवादि तत्व द्रव्य पर्याय स्वरूप है ऐसा दिखाया है वैसे यह भाव व प्रभाव रूप भी है ऐसा बताते हैं सतः कथंचित्तदसत्त्वशक्तिः, खे नास्ति पुष्पं तरुषु प्रसिद्धम् सर्वस्वभावच्युतमप्रमारणं, स्ववाग्विरुद्ध तन दृष्टितोऽन्यत् ॥ २३ ॥ प्रपने अन्वयार्थ -- (सतः ) जो कोई सत् रूप विद्यमान आत्मा प्रादि तत्त्व है वह स्वचतुष्टय की अपेक्षा से है, उसी में (कथंचित् ) किसी अन्य अपेक्षा से अर्थात् पर चतुष्टय की अपेक्षा से (असत्त्वशक्तिः) श्रसत्ता या श्रविद्यमानपने की प्रतीति है । वस्तु स्वस्वरूपावि को दृष्टि से प्रतिरूप है वही पर स्वरूपादि की दृष्टि से नास्तिरूप है। वस्तु में अपना वस्तुपना तो है, परन्तु प्रन्य वस्तुपना नहीं है । जैसे ( पुष्पं ) फूल (तरुपु प्रसिद्ध ) वृक्षों में सिद्ध है, परन्तु ( खे नास्ति ) श्राकाश में नहीं है । इसलिये तत्त्व उभयरूप है श्रस्तिरूप भी
SR No.010072
Book TitleParmatma Prakash evam Bruhad Swayambhu Stotra
Original Sutra AuthorYogindudev, Samantbhadracharya
AuthorVidyakumar Sethi, Yatindrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages525
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy