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________________ श्री संभवनाथ स्तुति २५ कुटुम्ब के स्नेह से पीड़ित है तो भी ऐसा लोभी व दुर्बुद्धि प्राणी अपना मन इस संसार के नाश के लिये तैयार नहीं करता है । वास्तव में मोह की विचित्र महिमा है । इसके नाश के लिये तत्त्वज्ञान का अभ्यास जितेन्द्र की भक्ति परम कल्याणकारी है । दशा जग प्रनित्यं शरण हे न कोई । ग्रहं मम मई दोष, मिथ्यात्व बोई ॥ जरा जन्म मरण, सदा दुख करे है । तुही टाल कर्म, परम शांति दे है ॥ २ ॥ उत्थानिका — और हे प्रभु ! श्रापने क्या किया सो कहते हैंशतहृदोन्मेषचलं हि सौख्यं तृष्णासयाप्यायनमात्र हेतुः । तृष्णाभिवृद्धिश्च तपत्यजस्त्र तापस्तदायास्यतीत्यवादीः ||१३|| अन्वयार्थ -- (हि) निश्चय से ( सौख्यं ) यह इन्द्रिय सुख ( शतहृदोन्मेपचलं ) बिजली के झलकने मात्र चञ्चल है ( तृष्णा मयाप्यायनमात्रहेतुः ) तथा तृष्णामाई रोग के पढ़ने मात्र काही कारण है । ( तृष्णाभिवृद्धिः ) यह तृष्णा की बढ़वारी ( अजस्र ) निरन्तर (तपति) संताप पैदा करती है ( ताप: ) और यह ताप ( तत् श्रायासयति ) इस जगत को अनेक दुःखों की परम्परा से क्लेशित रखता है (इति) ऐसा (ग्रवादी:) प्रापने उपदेश किया है। भावार्थ - यहां पर आचार्य वे यह बताया है इन्द्रियों के भोग से जो सुख माना जा रहा है वह वास्तव में सुख नहीं है किन्तु दुःख रूप है । जगत में दुःख यदि कोई है तो वह तृष्णा का या इच्छा का ही है । जैसे मृग तृषातुर होकर भटक भटककर पानी न पाकर महान दुःखी रहता है वैसे यह संसादी प्राणी तृष्णा को न शमन करने के कारण मलेशित रहता है । इन्द्रियों का सुख एक तो बिजली के चमत्कार के समान चंचल हैथोड़ी देर मालुम होता है फिर इच्छा के बदलने से शक्ति के प्रभाव से या योग्य वस्तु की अवस्था बदलने से बन्द हो जाता है । यदि इच्छानुसार भोग्य पदार्थ न रहा व उसने परिणमन न किया व उसका वियोग हो गया तो वह सुख नष्ट हो जाता है । जब कि इस जगत में सर्व हो चेतन व प्रचेतन वस्तुएँ अपनी अपनी पर्याय से प्रनित्य हैं और उन्हीं के प्राधीन इन्द्रिय सुख की मान्यता होती है, तब यह स्वयं सिद्ध है कि यह सुख अत्यंत चञ्चल व नाशवंत है । फिर इस सुख के भोग से तृष्णा मिटने की अपेक्षा अधिक बढ़ जाती है । जितना २ अधिक भोग होगा उतना २ अधिक तृष्णा का रोग बढ़ जायगा । तृष्णा भीतर २ बहुत संताप पैदा करती है । उस ताप से पीड़ित हो, यह प्राणी अनेक प्रकार उद्यम करके क्लेश उठाता है । चाहता है कि तृष्णा मिटे, परन्तु यह नहीं मिटतो
SR No.010072
Book TitleParmatma Prakash evam Bruhad Swayambhu Stotra
Original Sutra AuthorYogindudev, Samantbhadracharya
AuthorVidyakumar Sethi, Yatindrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages525
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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