SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 340
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ स्वयंभू स्तोत्र टोका सेबक है, मेरा मालिक है इत्यादि । इस तरह अहकार व ममकार में अंधे होते हुए इन्द्रिय विषयों के लिये लोलुपी होते हुए प्रात्मीक सुख को भूले हुए मैं सुखी, मैं दुःखी, इस भाव में सने हुए मिथ्यात्व के प्रबल दोष से पीड़ित रहते हुए तीन कर्म बांधते हैं। - बारबार आयु व गति कर्म बांधकर एक शरीर में जन्मते हैं वहां कदाचित् बूढ़े होते हैं फिर मरते हैं फिर जन्मते हैं और अनेक इष्ट वियोग, अनिष्ट संयोग, रोग, दरिन्द्र प्रादि दुःखों के साथ २ अवश्य होने वाले जन्म जरा मरण के कष्टों से सदा पीड़ित रहते हैं। ऐसी महा दीन संसारी प्राणियों की दशा हो रही है । ये जीव संसार के कर्म रूपी रोग से महान् कष्ट भोग रहे हैं । उनके लिये श्री अरहन्त भगवान ने रत्नत्रय धर्म रूपी ऐसी अमृतमई औषधि बताई है कि जिन्होंने सेवन की, उनका कर्म कलंक मिटा । वे कर्मार्जन से रहित हो निरंजन हुए और उनका सर्व अहंकार ममकार व आर्त भाव मिट गया, उनको अपने प्रात्मा का सच्चा अनुभव हो गया इसलिये उनको परम शांति घानन्द का लाभ हना। वे अपने अविनाशी ज्ञानादि धन को पागए। परम तृप्त हो गए और परम स्वाधीन बन गए। धन्य हैं श्री संभवनाथ भगवान ! आपके उपदेश से संसारी जीव परम सुखी हुए। इसलिये आप इस दोन संसारी अशरण प्राणी के लिये सच्चे परम परोपकारी निरपेक्ष अकस्मात् वैद्य हैं। आपको बारबार नमस्कार हो । वास्तव में इस संसार का ऐसा ही स्वभाव है। सारसमुच्चय में कुलभद्राचार्य कहते हैं . कषायकलुषो जीवो रागरंजितमानसः । चतुर्गतिभवाम्बोधौ भिन्न नौरिव सीदति ।।३।। ___षायवशगो जीवो कर्म बध्नाति दारुणम् । तेनासी क्लेशमाप्नोनि भवकोटिपु दारुणम ॥३२॥ भावार्थ-क्रोध, मान, माया, लोभादि कषायों से मैला जीव रागी मन वाला ' होता हुमा चार गतिरूपी संसारसमुद्र में टूटी नाव के समान डूबता हुआ कष्ट पाता है। कषायों के आधीन जीव भयानक कर्मों को बांधता है। उनके फल से यह जीव करोड़ भवों में कठिन २ दुःख उठाता है। श्री अमितगति सुभाषित रत्नसंदोह में कहते हैंगलत्यायदेहे व्रजति विलयं रूपमखिलं । जरा प्रत्यासन्नी भवति लमते व्याधिदयम् ।। कुटुम्बः स्नेहार्तः प्रतिहतमतिर्लोभकलितो। मनो जन्मोच्छित्य तदपि कुरुते नायमसुमान ।।३३३।। भावार्थ-यह प्रायु गलती जा रही है । देह में सर्व रूप नाश होता जा रहा है। बुढ़ापा निकट श्राता जाता है, रोग प्रगट हो रहा है, कुटुम्ब स्नेह से दुःखी है या प्राप
SR No.010072
Book TitleParmatma Prakash evam Bruhad Swayambhu Stotra
Original Sutra AuthorYogindudev, Samantbhadracharya
AuthorVidyakumar Sethi, Yatindrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages525
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy