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________________ स्वयंभू स्तोत्र टीका है । और शीघ्र ही शरीर को छोड़ना पड़ जाता हैं । बस चाह को दाह में जलता हुआ ही प्रार्तध्यान व रौद्रध्यान से मरकर कुगति का पात्र हो जाता है-कुगंति में जाकर दुःखी दलिद्री मानव, पराधीन पशु व कीड़ा मकोड़ा व वृक्ष आदि या नारकी हो जाता है और महान् कष्टों को भोगता है । इसलिये यह इन्द्रिय-जनित सुख दुःख का कारण है। सच्चा सुख तो प्रात्मीक है जो स्वाधीन है तथा अविनाशी है व परम तृप्तिकारक है । कुन्दकुन्द प्राचार्य श्री प्रवचनसार में कहते हैं सपर बाधासहिदं विच्छिन्न बंधकारणं विसमं । जं इदिये हि गेज्झ तं सुक्ख दुःखमेव तदा ।। अर्थात्-इन्द्रियों का सुख पराधीन है, बाधा सहित है, नाशवन्त है, बंध का कारण है व प्राकुलता रूप व संकल्प विकल्प रूप विषम है। जब कि प्रात्मीक अतीन्द्रिय सुख स्वाधीन है, बाधा रहित है, अविनाशी है, बंध का नाश करने वाला है व समता रूप है पा शान्त रूप निराकुल है । इसलिए इन्द्रिय सुख तो दुःखरूप ही है । तीर्थंकर महाराज ने तो भले प्रकार वस्तु का स्वरूप जानकर ऐसा सत्य प्रकाशमान किया है और यह उपदेश दिया है कि हे जगत के प्राणियो! इन्द्रिय सुख में तन्मय न हो। एक-एक इन्द्रिय के प्राधीन हा प्राणी नष्ट हो जाता है। तब जो पांचों इन्द्रियों का दास होगा उसके नाश होने में क्या सन्देह है ? हाथी स्पर्श इन्द्रिय के वश हो पकड़ा जाता है। मछली रसना के वश हो जाल में फंस जाती है । भौंरा नाक के वश हो कमल में वन्द हो प्राण गमाता है । पतंगा प्रांत के वश हो अग्नि में जलकर मर जाता है । हिरण कर्ण के वश हो पकड़ा जाता है । ज्ञानी को उचित है कि प्रात्मीक सुख को ही सुख माने । इन्द्रिय सुख में सुखपन की प्रास्था छोड़ दे । गृहस्थ में रहते हए जो कुछ इन्द्रियों का भोग हो उसको एक प्रकार अावश्यकता व लाचारी जानकर भोग ले। परन्तु उसमें मोहित न होवे। उस भोग का इच्छा के शमन का क्षणिक उपाय मात्र जाने । कषाय को दमन न कर सकने के कारण ही ऐसा भोग भोगते हुए ज्ञानी रात दिन भावना भाता है कि कब कषाय का बल घटे कि मैं इन भोग सामग्री का त्यागकर वैराग्यवान साधु हो जाऊ। पहले श्रद्धा ठीक करना वाहिये, फिर चारित्र धीरे-धीरे सामने आता जायगा । सम्यग्दृष्टी का निःकांक्षित अंग यहा सिखाता है कि इस ज्ञानी को श्रद्धा अतृप्तिकारी इन्द्रिय सुख से बिलकुल हट जाती है । प्रात्मक सुख में ही सुखपने की श्रद्धा जम जाती है यही सम्यक्त्व का मुख्य चिह्न है। सुभाषित रत्नसंदोह में कहा है
SR No.010072
Book TitleParmatma Prakash evam Bruhad Swayambhu Stotra
Original Sutra AuthorYogindudev, Samantbhadracharya
AuthorVidyakumar Sethi, Yatindrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages525
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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