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________________ श्री संभवनाथ स्तुति '२३ . और इसीलिये ( जन्मजरांतकात ) जन्म जरा व मरण के दुःखों से निरन्तर पीड़ित हैं उनको (निरंजनां शांति) कर्म कलक से दूर करके परम वीतराग भाव को (त्वं अजीगमः) मापने प्राप्त कराया। भावार्थ-इस श्लोक में प्राचार्य ने संसारी प्राणियों के ससार रूपी रोग का बहुत अच्छा खुलासा किया है । वास्तव में हर एक अवस्था जो यह संसारी जीव कर्मों के उदय से पाता है, नित्य नहीं रह सकती । जो शरीर बनता है वह एक दिन जरूर नष्ट हो जाता है । जिस शरीर के साथी माता, पिता, स्त्री, पुत्र, बन्धु व मित्र होते हैं उनका भी वियोग अवश्य हो जाता है। जो लक्ष्मी श्राज किसी के साथ है, पुण्य के क्षय होने से चली जाती है । जो श्राज राजा है वह रंक हो जाता है । जो आज निरोगी है वह रोगी हो जाता है। जो प्राज अधिकारी है वह दीन सेवक हो जाता है । जो आज युवान है वह बुड्ढा हो जाता है। हर एक अवस्था विजली के चमत्कारवत् चञ्चल है। पानी के बुद्बुदे के समान नाशवंत है । देखते देखते अवस्था बदल जाती है । राज्यपाट उलट पलट हो जाते हैं । कोई भी प्राणी इन अनित्य पदार्थों को नित्य करके नहीं रख सकता है। इसी तरह इस जगत का हर एक प्रारणी अशरग है । जव मरण का समय पा जाता है कोई मित्र, वैद्य, औषधि, मंत्र, तन्त्र, यन्त्र, स्त्री, पुत्र, नौकर, चाकर, दुर्ग, पाताल, स्वर्गपुरो प्रादि कोई भी बचा नहीं सकते । लाचार होकर बड़े २ चक्रवर्ती व इन्द्र आदि को भी अपना शरीर छोड़ना पड़ता है । कोई ईश्वर परमात्मा भी किसी को मरने से वचा नहीं सकता। इसी तरह जब पाप के उदय से रोग, शोक, वियोग, दरिद्र आदि घोर कष्ट पड़ जाते हैं तब भी कोई रक्षा नहीं कर सकता। इस जीव को आप ही भोगना पड़ता है । मित्र, स्त्री, पुत्र प्रादि सब देखते ही रहते हैं। कोई दुःख को बांट नहीं सकता है । इसके सिवाय संसारी मारणी ऐसी मोह की मदिरा पिये हुए हैं जिसके नशे में अपने प्रात्मा को बिलकुल भूले हए हैं । इसलिये जिस शरीर में व जिस अवस्था में होते हैं उसमें यह अहंकार कर लेते हैं कि मैं पशु हूँ. मैं वृक्ष हूँ, मैं पक्षी हूँ, में मानव हूँ, में पुरुष हूँ, में स्त्री हूँ, मैं राजा हूं, मैं धनवान हूँ, मैं महाजन हूं, मैं दातार हूं, मैं तपस्वी हूं, मैं व्रती हूं, मैं धर्मात्मा हूं, मैं परोपकारी हूँ, मैं दोन हूँ, मैं दुःखो हूँ, मैं वालक हूँ, मैं जवान हूँ, मैं बूढा हूँ इत्यादि । तथा जो वस्तु पुण्य के उदय से अपने सम्बन्ध में या जाती है उसमें ममकार कर लेते हैं। जैसे मेरा वस्त्र है, मेरा प्राभूषण है, मेरा घर है, मेग राज्य है, मेरो जाति है, मेरा देश है. मेरा पुत्र है, मेरी स्त्री है, मेरी पुत्री है, मेरा मित्र है, मेरा
SR No.010072
Book TitleParmatma Prakash evam Bruhad Swayambhu Stotra
Original Sutra AuthorYogindudev, Samantbhadracharya
AuthorVidyakumar Sethi, Yatindrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages525
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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