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________________ २५६ ] परमात्म प्रकाश दान दिएउ मुणिवरहं ण वि पुज्जिउ जिरा पाहु पंच ण वंदिय परम गुरु किमु होस सिव-लाहु ॥ १६८ ॥ दानं न दत्तं मुनिवरेभ्यः नापि पूजित: जिननाथः । पञ्च न वन्दिताः परमगुरवः किं भविष्यति शिवलाभः || १६८ ।। आगे दान पूजा और पंचपरमेष्ठीकी वंदना, आदि परम्परा मुक्तिका कारण जो श्रावकधर्म उसे कहते हैं - ( दानं ) आहारादि दान (मुनिवराणां ) मुनीश्वर आदि पात्रों को ( न दत्त) नहीं दिया, (जिननाथः) जिनेन्द्र भगवान को भी ( नापि पूजितः ) नहीं पूजा, (पंचपरमगुरवः ) अरहन्त आदिक पांचपरमेष्ठी ( न वंदिताः) भी नहीं पूजे, तब ( शिवलाभः ) मोक्षकी प्राप्ति ( कि भविष्यति) कैसे हो सकती है ? भावार्थ - आहार, औषध, शास्त्र और अभयदान- - ये चार प्रकारके दान भक्तिपूर्वक पात्रोंको नहीं दिये, अर्थात् निश्चय व्यवहाररत्नत्रयके आराधक जो यती आदिक चार प्रकार संघ उनको चार प्रकारका दान भक्तिकर नहीं दिया, और भूगे जीवोंको करुणाभावसे दान नहीं दिया । इन्द्र, नागेन्द्र, नरेन्द्र, आदिकर पूज्य केवल ज्ञानादि अनन्तगुणोंकर पूर्ण जिननाथकी पूजा नहीं की; जल, चन्दन, अक्षत, पुर, नैवेद्य, दीप, धूप, फलसे पूजा नहीं की; और तीन लोककर वन्दने योग्य ऐसे अरहन्त सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु इन पांचपरमेष्ठियोंकी आराधना नहीं की । सो है जीव, इन कार्योंके विना तुझे मुक्तिका लाभ कैसे होगा ? क्योंकि मोक्षकी प्राप्तिके ये ही उपाय हैं । जिनपूजा, पंचपरमेष्ठीको वन्दना, और चार संघको चार प्रकारका दान, इन विना मुक्ति नहीं हो सकती । ऐसा व्याख्यान जानकर सातवें उपासका ध्ययन अङ्गमें कही गई जो दान पूजा वन्दनादिककी विधि वही करने योग्य है | शुभ विधिसे न्यायकर उपार्जन किया अच्छा द्रव्य वह दातारके अच्छे गुणोंको धारणकर विधि पात्रको देना, जिनराजकी पूजा करना, और पंचपरमेष्ठीको वन्दना करना, में ही व्यवहारनयकर कल्याणके उपाय हैं ||१६|| अथ त्रिवेन चिन्तारहितध्यानमेव मुक्तिकारणमिति प्रतिपादयति चतुष्कलेनअम्मी लिय- लोयगिहिं जोउ कि पियएहिं । एमुइ लभइ परम- गइ गिचिति टियएहिं ॥१६६॥
SR No.010072
Book TitleParmatma Prakash evam Bruhad Swayambhu Stotra
Original Sutra AuthorYogindudev, Samantbhadracharya
AuthorVidyakumar Sethi, Yatindrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages525
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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